Friday, December 31, 2010

गाम चलू

बहुत दिन बाद गाम गेल छलहूँ , बस पर सं उतरिते एक टा रिक्शावाला लग में आबी क अप्पन रिक्शा ठाड़ क
देलक आ हिनका पुछ्ल्क्नी ,मालिक ,अहि बेर त बहुत दिन बाद एलियाई ?अपने हँसैत बजल खिन हं रौ बेसिए व्यस्त भय गेल छलहूँ आब ओकरा पुछ्ल्खिन तोहर की हाल-चाल ?कह लागल ,हुजुर ,ठिक्के हाल हई,एक्को गो बाल-बच्चा लग में नहि हई बेटी त ससुरे बसई हई ,आ तीनू बेटा दिल्ली कमाई हई तखन ,कहलखिन बाज कतेक पैसा किराया लेबही ओ कहलकनी , बेसी नईलेब हुजुर ,खाली पचीसे टा द देब .हम सब रिक्शा पर बईस गेलहूँ .तखन अपने कहलखिन ,अहि बेर त तोहर किराया दुन्ना बुझाइए ,ओ बाजल,ई सं कम में नहि पोसाए हई .
अंगना ,पहुंचला के बाद हम भगवती के गोड़ लागे लेल गेलहुं आ अपने माय के प्रणाम केला के बाद

कहलखिन ,-जौं,दू कौर भात छौक त अहि रिक्सावाला के परसि दहीं
हम शहर आ गामक अंतर करय लगलहुं.आई जाही शहर में हम पचीस -तीसबरख सं रहिरहल छि शायदे कोनो रिक्शावाला या एहने कोनो अन्य आहां के व्यक्तिगत रूप सं चिन्हैत हैत. छोट शहर में त तैयो ठीक छैक पैघ शहर में त आहां सिर्फ नंबर सं जानल जाई छि ,लोकक भीढ़ में सिर्फ एक चेहरा बस .अपन जिंदगी भरि के कमाई सं जौं आहां एक टा विशाल मकान बनैयो लैत छि त ताहि सं की ,नगर निगम द्वारा आहां के एक टा नया नंबर द देल जाईया, दू चारी टा अड़ोसी- पडोसी किछु मित्र परिचित ,परिजन के बुझेतई ,यएह की नई? आब आहां सोचु की अगर अपन गाम पर जौं आहां ओहने मकान बनबैत छि त लागत त कम लगबे करत ,ओही पूरा इलाका में आहां अपन मकान सं चिन्हल जायब अपना गाम घर दिश अखनो लोग सुन्दर पैघ मकान कम्मे बनबैत छैक -मिथिलाक गाम जन शुन्य भेल जा रहल अछि ,प्रायः इ देखल जा रहल छैक जे ,जौं एक बेर गाम छोड़ी क बहरा गेला से फेर घुरि क गाम बसै लेल नहि अबैत छैत.
हम समस्त मैथिल जन सं आग्रह करैत छियैन ,जे ओ सब फेर घुरि क अप्पन गाम आबिथआ ओत्तही बसिथ .अप्पन मिथिलांचल में आहां के स्वागत अछि .....

Sunday, October 31, 2010

असमंजस

अभी बिहार में चुनाव हो रहे हैं. सारा माहौल ही चुनावमय हो गया है. बिहार के लोगों का राजनैतिक ज्ञान गजब का है. अभी तो उन्हें बस छेड़ने भर की देर है. हर प्रत्याशी का बायोडाटा और चुनावी हैसियत उन्हें पता होता है. रोज़ एक से एक नेता आते हैं. नेताओं को सभा स्थल पर जाकर सुनने का शगल कुछ ही लोगों में होता है. उनके लिए समस्या हो गयी है कि किसे सुने किसे छोड़े. अब राजनीति तो सिर्फ जबानी रह गयी है.

कौन सा नेता अपनी बातों को कितने प्रभावशाली रूप में रख रहा है बस इसी का खेल है. वैसे माने तो शब्दों की बाजीगरी बहुत बड़ा गुण ही है. किसी मुद्दे को उठाकर लोगों का ध्यान उसकी तरफ खींचना एक कला ही तो है.

जब आप नेताओं का भाषण सुनते हैं तो मन अभिभूत हो जाता है. अपनी पार्टी के प्रत्याशी का ऐसा वर्णन, मानो वही एक मात्र हैं. लेकिन भाषण सुनकर जब आप अपने घर की टूटी फूटी सड़क, गन्दी गलिओं से लौट रहे होते हैं तो सारा भ्रम दूर हो जाता है.

मन दिग्भ्रमित है, बड़ी असमंजस की स्थिति है.

अपना वोट किसे दूँ?

Monday, October 18, 2010

खुशियाँ हमारे चारों ओर हैं ।

एल्बम के पन्नो में
पुराने दराज के कोने में ,
अलमारी के किसी कपडे में ,
गद्दे के नीचे किसी खत में ,
ख़ुशी छुपी पड़ी है ,उसे ढूंढ़ लो ।
बरसात के सूखे तौलिये में ,
जाड़े की गुनगुनी धुप में ,
गरम चाय की चुस्कियों में ,
ठेले के चटपटे भुट्टों में ,
सुख कहीं आस-पास है ,उसे समेट लो .
पुराने स्कूटर के स्टार्ट हो जाने में ,
भरी बस में सीट मिल जाने में ,
देर रात ऑटो मिल जाने में ,
बॉस के अचानक छुट्टी पर चले जाने में ,
मस्ती इन्ही में है , इन्हें इंजॉय करो .

Monday, October 11, 2010

इस वार का कॉमन -वेल्थगेम्स हमने भी देखा
खेल देखने के अनुभव को मैं दो भागों में बाटना चाहती हूँ पहले हिस्से में खेलों के दौरान दिल्ली में रहने से ले क़र टिकट कटाने का है
जो लोग दिल्ली में नहीं रहते हैं ,उन लोगों को जरूर इस बात से बड़ी इर्ष्या हो रही हो गी कि काश इन दिनों हम भी दिल्ली में रहते .लेकिन हमारी जो गति हो रही है सो हम ही जान रहे हैं .खेल शुरू होने केपहले ही हमने पंद्रह दिनों का रसद -पानी ,जरुरी सामानखरीद क़र रख लिया था .अभी तो कहीं आने जाने कि सोचना भी मुस्किल है ,जो लोग घर से निकलते हैं उनके घर लौटने के समय का कोई ठीक नहीं रहता है ,सब्जी -फल वालों के ठेले हटा लिए गए हैं इस लिए एक तो मिलनी दिक्कत और अगर मिल भी गयी तो औने -पौने दामो पर मिल रही हैं
खेलों के टिकट स्टेडियम के पास नहीं मिलते .किन्ही खास जगहों पर या ऑन लाइन मिलते भी हैं तो कहीं जा क़र आपको लेना पड़ता है .मतलब ये कि अगर कामकाजी आदमी खेल देखना चाहे तो सिर्फ एक खेल देखने के लिए उसे अपना पूरा दिन लगाना पड़ेगा दुसरे खेल के लिए उसे फिर से छुट्टी लेनी पड़ेगी.टिकट लेने के लिए आपको अपना कोई पहचान पत्र ले क़र जाना होगा ,और खेल lदेखने जाने में तो ,आप कुछ भी नहीं ले जा सकते हैं इन सब चीजों कि पूर्व जानकारी कहीं भी नहीं दी जाती है
हमने जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम का टिकट लिया था ,मकसद यही था खेल के साथ-साथ मुख्यस्थान देखना और एक साथ कई खेल देख लेना
नेहरू स्टेडियम वाकई विश्व स्तरीय बन पड़ा है वो तमाम चीजें और सुविधाएँ वहां हैं जो अब तक हम विदेशों में देखा करते थे .
स्टेडियम के चारों ओरअभूत पूर्व सुरक्छा व्यवस्था कि गयी है .भले ही जिसके चलते लोगों को काफी चलना पड़ता हो .हर टिकट में मेट्रो से जान-आने कि सुविधा दी गयी है साफ सफाई तो ऐसी किलगता ही नहीं है कि वो ही दिल्ली है वाकईदिल्ली को काफी खूबसूरती से सजाया गया है फिल हाल ऑटो वाले भी पुलिस के डर से अनाप -सनाप भाडा नहीं वसूल रहे हैं चप्पे- चप्पे पर पुलिस तैनात हैं कहीं से भी कभी भी आओ -जाओ कोई डर कि बात नहीं .
इन खेलों के आयोजन से दिल्ली वासियों को कई फायदे हुए हैं ,जैसे मेट्रो सेवा का विस्तार ,नेहरु स्टेडियम कई फ्लाई ओवर कई जर्जर सड़कों का पुनः -उध्हारऔर सबसे बड़ी बात इस बात का आत्म विस्वास जगा है कि अपने देश में भी इतना बड़ा आयोजन हो सकता है

Sunday, October 10, 2010

हे भवानी , दुःख हरु माँ ,पुत्र अप्पन जनि कय
दयरहल छी कष्ट भारी बीच विश्व में आनि कय ,
अखन मिथिलांचलक घर आँगन ,प्रत्येक मंदिरक प्रांगन अहि तरहक गीत सं गुंजायमान होयत .भगवान मनुष्य केकतबो कियक ने दौकमुदा भगवती आगांसदैब दीन-हीन ,प्रार्थी बनल रहैत अछि .मिथिलाक गीत में जेहन अटूट श्रधा ,समर्पण ,विनय तत्त्व रहैत छैक जे मोन भाव विभोर जैत छैक .हम कतेको गीत सुनैत छियैक लेकिन अहन भाव -प्रवणता अन्यत्र कहाँ?सम्पूर्ण वातावरण देवीमय बनल रहैत छैक .एक भोरे अन्हारे सं फूल लोधय के काज सं पूजा के ओरीयान कार्यक्रम आरम्भ होइत छैक से चीनबार निपनाई, सराई -लोटा ,मज्नाई ,पूजा -पाठ व्यवस्था ,भोग इत्यादी करैत -करैत अबरे जैत छैक .दिन कोना बीत जैत छैक नहि बुझैत छई. तैं कनिए काल बाद ,संध्या आरती समय भय जैत छैक. अंतिम तिन चारि दिन मेला देखबाक उल्लास अखनो गाम घर में छैक. भगवतीक दर्शन तं प्रमुख कारन रहिते छैक ओ गामक मेला में झिल्ली -मुढ़ी ,कचरी क आनंद ,गरम जिलेबी क अपूर्व स्वाद, शहरक पिजा -बर्गर में कहाँ ? भागलपुर जिला में एकटा गाम छैक भ्रमरपुर, ओत्तुका भगवती के बड़ महिमा छनि ओही गामक लोग सब ,नियम कयने छथि जेओ सब कत्तहु कमाय-खाय लेल कियैक ने बसी गेल होथि,शारदीय नवरात्रा में सब गोटेअप्पन गाम अवस्य अबैत छथि आ भगवती क आशीर्वाद ले क धन्य होइत छथि हमरा त इ परम्परा बड्ड निक बुझाइत अछि तें हम सब सं आग्रह करब जे अप्पन गामक भगवती के नहीं बिसरू ,अपन घर- घरारी के वैह कल्याण करती, इति शुभ.

Friday, October 8, 2010

आहा !दुर्गापूजा !मन उत्साह से भर उठा है .शारदीय नवरात्रा में तो लगता है मनो पूरी प्रकीर्तिदेवी का स्वागत कर रहि हो .वातावरण में एक नयी उमंग एक नया उत्साह एक नई ताजगी का अहसास छा जाता है .मौसम अचानक से बदल जाता है ,बरसात कीउमस वाली गर्मी से राहत मिलती है क्योंकि खुश्क हवा माहौल को खुशनुमा बना देती है
मेरे लिए तो दुर्गा पूजा शुरू होने का मतलब -दस दिनों तक सात्विक भाव से देवी की पूजा ,अर्चना ,आरती भोग -नए कपडे ,तरह तरह के नए पकवान -अंतिम तीन चार दिन ,पंडालों में जा कर प्रतिमा दर्शन ,घूमना -फिरना ,सम्बन्धियों से मिलना .सचमुच जीवन में एक ताजगी छा जाती है । आईये त्यौहार मनाएं ,
जीवन में नयापन लायें । मेरी शुभ कामनाएं ।

Wednesday, October 6, 2010

मेरा कम्प्यूटर ग्यान कुछ ऐसा ही है जैसे कोई कम पढ़ा -लिखा व्यक्ति ,ऊपर से इंग्लिश स्पीकिंग का कोर्स करले
दर असल घर में एक कम्प्यूटर है एवं नेट की सुविधा है ही .सुबह सब के चले जाने के बाद ,मेरे लिए करने को कोई खास काम नहीं रह जाता है सो बच्चों ने मेरे टाइम पास के लिए मेरा एक इ.मेल इ.डी.खुलवा दिया ,कहा नहो तो तुम हमें अपनी दिनचर्या ही मेल किया करना .फिर मैंने धीरे धीरे न्यूज़ पढना शुरू किया और उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं भेजनी शुरू की ।
ढेरोंविचार ,सुझाव ,भाव व्गेरह तो पहले भी आते ही थे लेकिन उन्हें प्रकाशित करने का उपाय इतना सहज नहीं था .पेपर -पत्रिका वाले हमें क्यों भाव देते .वो तो भला हो इस नेट की दुनिया का और इस ब्लॉग की कल्पना करने वालों का .शुरू -शुरू में टाइकरने में भी बड़ी मुश्किल होती थी हिंदी के सही हिज्जे अंग्रेजी अक्षरों के हिसाब से लिखना थोडा कठिन जरुर है फिर कभी तो सारा लिखा हुआ अचानक से गायब हो जाता था लेकिन अब थोड़े से अभ्यास से सहजता से लिख लेती हूँ ।
अपने मन की बात औरों से बाँट पा रही हूँ इसका आनंद ही कुछ और है फिर हिंदी ब्लॉग लेखन का परिवार इतना विशाल एवं समृद्घ है यह उसमे प्रवेश करके ही जाना जा सकता है आधुनिक युग की सरस्वती अब इन्ही में बसती हैं .

Tuesday, October 5, 2010

पता

दूसरों का पता रखना, दूसरों को पता बताना,
तेरा अपना पता क्या है?
जो, तुझे अपना ही पता, नहीं पता,
फिर गैरों कि क्यों पता?
तेरा असली पता, तेरे अन्दर है।
क्यों उसे ढूंढ़ता है बाहर, पता नहीं
अगर मिल जाये ,तुझे अपना पता,
दुनिया को पता, चल जायेगा तेरा पता .

Wednesday, September 29, 2010

उड़ान

मैंने आसमान में कुछ पतंगें उड़ाई हैं.
उन्हें खुल कर उड़ने को पूरा गगन दिया.
जितनी जरुरत थी उतनी ही ढील दी.
चाँद-सूरज को छू लेने की आस लिए
पतंगे अपनी मंजिलों की और भाग रहीं थीं.
कि राह में उन्हें ऊँची इमारतों
बिजली के खम्भों ने रोक लिया
अब अधर में लटक कर तूफानी हवा के थपेड़ों से चीथड़ों में बटना
या फिर बारिश के पानी में गलते रहना
क्या यही उनकी नियति होगी?
लेकिन मैंने अपनी आँखें मूँद ली हैं
कान बंद कर रखे हैं
क्योंकि मैंने पतंगों की डोर
अपने दिल के तारों से जोड़ रखे थे .


Sunday, September 19, 2010

युवा हवा

मैं पिछले कई महीनो से दिल्ली में हूँ. अपने बच्चों के पास. सभी बच्चे अब बड़े हो गए हैं, स्वभाविक है उनकी अलग ही दुनिया है. आज कल के युवाओं की दुनिया काफी अलग किस्म की है. अपने समय में हमारी भी अलग थी, लेकिन जहाँ हम पढाई के अलावा -लड़की हो तो सिलाई-कढाई-बुनाई, कुछ माँ के काम में हाथ बटाते थे और लडके हो तो बाहर जा कर खेलना, या साईकिल स्कूटर, चंद दोस्तों के साथ अड्डेबाजी. दोस्तों मित्रों का दायरा काफी छोटा होता था. जब कमाने धमाने के चक्कर में पड़ गए तब तो प्रायः यार दोस्तों का साथ छूट ही जाता था .
अब जो मैंने इनकी दुनिया में झांक कर देखा तो मुझे बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ, इनकी दुनिया तो बड़ी दिलचस्प है. ढेर सारे लोग एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. अपना हर सुख- दुःख साझा करते हैं. मोबाईल क्रांति तो है ही, मगर इस फेस-बुक ने तो कमाल ही कर दिया है. देखते ही देखते आप एक बड़े ग्लोबल परिवार में शामिल हो जाते हैं. तार से तार जुड़ते चले जाते हैं और आप पर भरी पूरी दुनिया में रहने का अहसास छा जाता है.
जैसे ही अपनी खुशियों का कोई फोटो आप लगाते हैं -बधाइयों का ताँता लग जाता है. अब तो मोबाईल उठाने की भी जरुरत नहीं होती. ऑफिस का काम करते हुए, कब अपने दोस्तों को सन्देश भेज दिया बॉस को पता भी नहीं चलता. तभी तो पूरे दिन फेस बुक का चक्कर चलता रहता है. और शाम को तो लगता है सभी एक ग्लोबल मैदान में उतर आये हों.

Monday, September 13, 2010

दोहरी ज़िम्मेदारी

हमारे पड़ोस में एक दंपत्ति रहते हैं। दोनों कमाते हैं. पति अच्छा खासा कमाता है .लड़की बीमार रहती है.फिर भी शाम को जल्दी आ कर खाना बनती है. मैंने उस से पूछा - क्या तुम्हारा नौकरी करना इतना ही जरुरी कि तुम्हारी सेहत ही ख़राब हो जाये? उसने कहा फिर मेरी पढाई का क्या मतलब रह जायेगा. यानि आज कल कि लड़कियों कि आम सोच मतलब नौकरी - चाहे वो किसी भी कीमत पर मिले. उनको अभी ये समझ नहीं आ रहा है कि अपनी सेहत और अपने बच्चों के मानसिक विकास के रूप में वे कितनी बड़ी कीमत चुका रही हैं. प्रकृति ने तो अपने हिसाब से बड़ी बढिया व्यवस्था की- पुरुषों को मेहनत कर कमाने के लिए बनाया और औरतों को एक महान काम - पुनर्निर्माण - की जिम्मेदारी दी. उसने उसे कोमल और सुन्दर बनाया - वह प्राकृतिक रूप से कोमल होती है इस लिए उसे मेहनत वाले काम करने ही नहीं चाहिए, जीवन में रंग भरने के लिए उसे सुन्दरता मिली है, लेकिन आजकल सभी मूल व्यवस्थाओं में उलट फेर हो रहा है .चाहे वह पर्यावरण हो या मानव जीवन -ज्यादातर खामियाजा औरतों को ही भुगतना पड़ता है, अपने को ज्यादा काबिल साबित करने का चक्कर कहिये या आत्मनिर्भर होने कि इच्छा, आजकल की लड़कियां अपने सर पर दोहरी जिम्मेदारी ढो रही हैं.

Monday, September 6, 2010

स्ववार्ता

.आई भोरे सं पानि लदने अछि .पछिला एक सप्ताह सं यैह भय रहल छैक .ओछान-बिछान ,घर -आगन ,सबटा सेमल बुझाइत अछि .भरोस नहि होइया जे आब जल्दी उबेर हेतैक .अहि लोक के,कि कही जखन मुख्यमंत्री शीला दिक्छित सेहो कल जोड़ी क इन्द्र भगवान सं त्राहि -माम के गोहार क रहल छति
पता नहि चेरापूंजी में लोक सब कोना क रहैत हेतैक .
दिल्ली में केहनो,पानि -बतास ,या सित्लहरी कियक ने होऊ ,अहि ठामक लोक के दिनचर्या नहि रूकैतछैक .तैं सब के अपन-अपन ठाम पर क बिदा क
अपना लेल एक कप गरमा -गरम चाह बनौलहूँ मोन त ओही चाह संगे कचरी खै के होइत छल मुदा बनब के आलस्य दुआरे अनठा देलियैक

Saturday, September 4, 2010

पेटक बात

काल्हि खन सहलछलहूँ .तैंभोरे सं सब खाय लेल कह्यलागल मुदा हम सब के बात अनठाक सब के ऑफिस कॉलेज बिदा केला के बाद अपना लेल तप्पत भात आ खूब चहट गर तीमनबना क जा खा नहीं लेलहुं ता देह में किछु सक्के नहि बुझाइत छल .जाँ सबहक सामने इ काज केने रहिति यई तसब बद्द बात कही तै कियो सुगर बध्वा के धमकी देत त कियो गैस क नाम सं डरबिते
गाम
- घर सं बाहर रहला सं ई सब फेदा छैक ओना नुकसानों कोनो कम भारी नहि छैक अप्पन डेरा में मरितो रहू त कियो देखन्हार-बुझ्न्हार नहि

Wednesday, August 4, 2010

युवा वर्ग की नयी जीवन शैली

आज कल की युवा लड़कियों में नया चलन चल पड़ा है एकाकी जीवन जीने का. खुद कमा रही हैं ,अपने ढंग से रह रही हैं ,बिलकुल स्वछन्द जीवन जी रही हैं. शायद बड़े शहरों की सुविघा - सुरक्षा एवं एक ऐसी मानसिकता (जिसमे किसी को किसी से कोई मतलब नहीं रहता है) बढ़ावा दे रही हैं .वर्ना छोटे शहरों की मानसिकता तो अभी भी खुद से ज्यादा अकेली लड़कियों के बारे में जानने की रही है,यानि बिना वजह दूसरों के जीवन में ताँक झांक .
शादी -विवाह से बेशक स्वछंदता में कमी आती है.लेकिन ऐसी भी क्या स्वछंदता. अपनी घर-गृहस्ती बसाने का जो सुख है, उसका इन्हें अनुभव नहीं है तभी ऐसा सोच रही हैं.
फिर एकाकी जीवन शुरू में तो ठीक लगता है लेकिन हमने तो प्रायः ऐसी औरतों का बुढ़ापा बड़ा दुःख दाई देखा है .असल में होता यों है कि,अकेली जिंदगी के खर्चे कम होते हैं इसलिए बचत अधिक होती है. इसलिए प्रायः सगे सम्बन्धी पैसे के लालच में इन से नजदीकी बनाना शुरू कर देते हैं जो की इन्हें नागवार होता है. अंततः बेदिल नौकर -चाकरों के भरोसे ही इन का जीवन कटता है
मुझे तो लगता है अपने आत्म-निर्भर होने के अहम् ने इन्होंने अपने जीवन साथी से कुछ ज्यादा ही उम्मीद करनी शुरू कर दी है, सब कुछ पा लेने का सपने देखना कुछ बुरा तो नहीं है लेकिन उसकी उम्मीद में जीवन के उन वर्षो बिताना जो की शारीरिक नजरिये से भी जरुरी है ये इनकी लापरवाही है.
अगर समय से सुब कुछ मिल जाये तो अति उत्तम लेकिन हर इन्सान में कुछ कमियाँ खूबियाँ होती ही हैं - आप ऑफिस में साथ मिल कर काम करते है, अडोस पड़ोस के साथ निभा के चलते हैं, अपने सगे सम्बन्धियों के स्वभाव के हिसाब से मिलते हैं, फिर अगर जीवन साथी के साथ क्यों नहीं?

Tuesday, August 3, 2010

मेरी इसबार की दिल्ली यात्रा

मेरी इस बार की दिल्ली यात्रा बहुत ही यादगार रही .ताजमहल देखने की इच्छा मेरे मन में वर्षों से थी जो इस बार जा कर पूरी हुई. फिर बच्चों ने जिस यादगार और अलग तरीके से मेरा जन्मदिन मनाया उसके तो क्या कहने! हम लोग रात के बारह बजे इंडिया गेट गए भागलपुर जैसी जगह में तो ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता है खैर वहां पर मैंने केक काटा इससे पहले हम लोग कनाटप्लेस गए वहां चौबीस मंजिला इमारत पर एक होटल है जिसका नाम परिक्रमा है.वह अपने नाम के अनुरूप घुमती रहती है उसमे बैठ कर खाते हुए आप दिल्ली का मुआयना कर सकते हैं यह हमारे लिए एक नया अनुभव था .

Tuesday, June 15, 2010

ऐसे हुई शुरुआत

यूं तो इस बार मैं कुछ समय दिल्ली में बिताने आई थी क्योंकि इस से पहले मुझे घर गृहस्ती के झमेलों से फुर्सत ही नहीं मिलती थी. अब जबकि सभी बच्चे दिल्ली में ही आ गए तो सोचा ,क्यों न मै भी कुछ दिन वहीँ रह कर आ जाउंगी. फिर मुझे बच्चों ने इंटरनेट का प्रयोग करना सिखाया, इस से तो मेरे सामने एक नयी दुनिया के रास्ते खुल गए...

Monday, June 14, 2010

पहल

मम्मी का नया ब्लॉग, उसमे यह पहला पोस्ट।