Sunday, September 23, 2012

जब प्रोफेसर साहब बीमार पड़े

प्रोफ़ेसर साहब बीमार पड़ गए ! एक तो प्रोफ़ेसर -टीचर की जात जल्दी बीमार ही नही पड़ती हैं क्योंकि दुनिया के तमाम पथ्य- परहेज उन्हें पता रहता है और वे उन्हें आजमाते भी रहते हैं .और खुदा न खास्ता अगर किसी बीमारी ने उन्हें पटक भी दिया तो क्या मजाल जो झट से किसी डाक्टर को दिखला लें ! पहले तो इधर उधर के नुस्खे से ठीक होने की कोशिश करेंगे ,फिर नही तो किसी दवा दुकान दार से पूछ क़र दवा खा क़र ठीक होने की प्रतिक्ष्चा करेंगे . लेकिन इस वार तो प्रोफ़ेसर साहब बीमारी के फेरे में पड़ ही गए .असल में उन्हें कुछ दिनों के लिए ससुराल जाना पड़ा ,वहां का स्वागत -सत्कार ,यानि मसालेदार भोजन ,इन्हें ले डूबा .घर में तो जनाब ना खुद इस तरह का भोजन करते ना करने देते ..कुछ दिनों तक जब बुखार नही उतरा तो तय हुआ की अब किसी डाक्टर तो दिखा ही लिया जाय !क्यों की अब इसके बिना कोई उपाय भी नही था .काफी पूछ -पाछ के एक अनुभवी डाक्टर के पास गए .उन्होंने इन्हें टाईफाइड बतलाया .प्रोफ़ेसर साहब तो ठहरे डाक्टर के गुरु उन्होंने पूछा ,आपको कैसे पता मुझे यही बीमारी है ?बुखार तो कई तरह के होते हैं .डाक्टर को भी शायद पता चल गया था की उसका किस से पाला पड़ा है ,उसने कहा चूँकि आपके सभी लक्छ्न यही बता रहे हैं फिर मै कुछ टेस्ट भी लिख दे रहा हूँ आपको तसल्ली हो जाएगी .वाकई टेस्ट में वही निकला . शाम को शुभ चिन्तक प्रोफ़ेसर सब आये हाल चाल जानने के लिए .फिर किस डाक्टर को दिखाया ,उसने क्या कहा ,कौन -कौन सी दवा दी किस दवा का क्या डोज है इत्यादि पर मंथन हुआ . खैर ...इस तरह एक हफ्ता निकल गया लेकिन बुखार जाने का नाम ही ना ले .फिर सब सुभ -चिन्तक प्रोफेसरों ने निर्णय लिया की जरुर दवाई का डोज कम दिया गया है या दवा गलत है . (अरे ,अगर यही बात थी तो आप सभी खुद ही डाक्टर नही बन गये होते. डाक्टर नही बन पाए तभी तो प्रोफ़ेसर बन गए ! )....आखिर डाक्टर किस लिए है .फिर से डाक्टर के पास गए ,लेकिन उसने आत्म विस्वास के साथ कहा दवा भी सही है और डोज भी .,बुखार चूँकि मियादी है इसलिए वो तो अपना समय ले क़र ही जायेगा .और ये भी कहा की उनका खुद का भाई चालीस दिनों तक यही बीमारी भोग चुका है .लेकिन प्रोफ़ेसर साहब इसी उधेड़ बुन में हैं की ये सब मेरे पढाये हुए मुझे ही चराने चले हैं ! अब वे दिल्ली का रुख करने की सोच रहे हैं ,क्यों की दिल्ली के डाक्टरों को उन्होंने नही पढ़ाया है !

Tuesday, September 4, 2012

दिल्ली दर्शन के बहाने

यूँ तो दिल्ली शुरू से ही दर्शनीय रहा है. कुछ अपने एतिहासिक इमारतों की भरमार की वजह से और कुछ अपने प्रशासनिक भवनो की वजह से भी .वैसे काफ़ी सारे बाग -बगीचे तो हैं ही साथ ही आधुनिक समय के अनुसार बनाए गये पर्यटक स्थल आपका मन मोह लेते हैं . पुरानी दिल्ली अभी भी आपको आपके छोटे शहरों की याद दिला देगी .वैसी ही तंग संकरी गलियाँ ,साधारण लोग .छोटी दुकाने ,गंदगी .बेहिसाब भीड़ और अनियंत्रित ट्रफ़िक .वो सब कुछ जिसके आप आदी हैं . नई दिल्ली का रूप ,अब काफ़ी कुछ ,तस्वीर मे दिखाई देती, विदेश जैसा दिखता है .खूब चौड़ी साफ-सुथरी सड़कें ,सड़कों की दोनो ओर हरियाली, रोशनी की जगमगाहट दिल्ली की जगमगाहट देख कर ,मुझे अपना बिहार याद आने लगता है जितनी बिजली की खपत एक मौल(साउथ एक्स.,जहाँ तीन आलीशान मौल एक साथ हैं )एक दिन मे करते होंगे ,मुझे लगता है मेरे पूरे भागलपुर शहर को उतनी ही बिजली मिले तो हम निहाल हों जाएँ .वहाँ हज़ारों विद्यार्थी लॅंप की धुंधली रोशनी मे पढ़ कर अपनी आखें फोड़ते हैं उद्योग -धंधे बंद हो गये हैं .यहाँ के सारे मौल फुल्ली एयर-कनडिज़ॅंड हैं! बिजली की इस अँधा-धुध बरबादी को देख कर मेरा तो दिल जलता है मैट्रो दिल्ली के लिए एक वरदान है .इसकी बनावट तो ,विश्व स्तर की है ही ,अभी तक इसका रख -रखाव ,व्यवस्था सूरक्क्छा लाजवाब है यह अपने गंतव्य तक जल्दी तो पहुँचता ही है साथ ही, ऑटो वालों,ट्रफ़िक-जाम प्रदूषण वग़ैरा से भी मुक्ति दिलाता है .मॅ तो भगवान से यही मनाउँगी की ऐसी ही व्यवस्था पूरे देश मे हो ताकि हम भी सुकून भरी यात्रा कर सकें . दिल्ली -दर्शन के दौरान मैने तो यही महसूस किया की ,दिल्ली बेशक देश का चेहरा है ,इसे सुंदर दिखना भी चाहिए .लेकिन कहीं इस चक्कर मे पूरा शरीर कुपोषण का शिकार जैसा न दिखने लगे

Friday, August 31, 2012


दिल्ली मे बिहारी भरे पडे हैं मुझे तो लगता है .अब दिल्ली मे दिल्ली वाले कम बाहरी ज़्यादा हो गये होंगे .लेकिन जैसा मैने महसूस किया यहाँ बिहारियों को वह सम्मान नही मिलता है जो उन्हे मिलना चाहिए . ऐसा शायद इसलिए होता हो की यहाँ के लोगो को प्रायः ऐसे बिहारियों से ज़्यादा सामना होता है जो छोटे -मोटे काम धंधों से लगे हुए हैं . आम जीवन मे ऑटो वाला, फल-सब्जियों की रेढ़ी वाला , डिलीवरी बॉय , सेल्स मेन, इत्यादि प्रायः बिहारी भाई ही मिल जाते है . कभी आप बिहार से आने वाली ट्रेन के समय स्टेशन पहुँच के देख लें ऐसा लगता मानो बिहारियों का एक रैला दिल्ली मे समाने आ रहा हो . इसमे होते तो सभी तबके के लोग हैं लेकिन अधिकतर संख्या उन लोगों की होती है जो आजीविका की तलाश मे यहाँ आते हैं . यहाँ के लोगो से जल्दी से जल्दी घुल-मिल जाने की इच्छा के कारण ये दिल्ली की धरती पर पैर धरते ही यहाँ की तेरी -मेरी बतियाना शुरू कर देते हैं मैने एक ऑटो वाले को रोका जो पक्का बिहारी ही था पूछने लगा तुम कहाँ जाओगे जी? मैने मन ही मन मे सोचा वहाँ तो हम सब को आप कहते है . यहाँ मे इसके माँ के उम्र की हूँ फिर भी मुझ से तू तड़क कर रहा है ....अपनी बोली , अपनी संस्कृति ,अपने रीति- रिवाज ,....बिहारियों की भाषा मे जो मिठास अपनापन है दूसरों के प्रति जो इज़्ज़त है आप उसे तो ना छोड़िए .

Friday, August 24, 2012

धरती के भगवान, यूँ शैतान न बन

फिलहाल में दिल्ली मे हूँ अपना इलाज करवाने आई हूँ .बिहार के छोटे शहरों भागलपुर ,दरभंगा पूर्णिया मुजफ्फरपुर वग़ैरा मे इलाज करवाना अभी भी ख़तरे से खाली नही है .जहाँ सरकारी सेवा बद से बदतर है ,प्राइवेट डाक्टर आपको लूटने मे लगे रहते हैं आमिर ख़ान जैसे लोग लाख सर पटक लें लेकिन यहाँ के डाक्टरों का दिल नही पसीजता .महँगी दवाइयाँ ,अनाप सनाप टेस्ट ,इलाज को लंबा खीचना और सबसे बड़ी बात अपनी अनुभव हीनता की बात को छुपाना ,चाहे मरीज की जान पर बन आए .ये डाक्टर सही इलाज का भरोसा दिला कर ,बीमारी को सुधारने की बजाय और बिगाड़देते हैं और फिर ये जाचवाले भी विश्वशनीय नही होते हैं अयोग्य लॅबटेक्निसियन रख कर मरीजों को ग़लत रिपोर्ट देते हैं जिससे डाक्टर भी भामित हो जाते हैं जब में एम्स मे गई तो ये देख कर कोई हैरानी नही हुई की वहाँ अधिकतर मरीज बिहार के ही थे डाक्टरों द्वारा बिगाड़े गये केस .हालाँकि बिहार के मुख्य मंत्री अपने स्तर पर भरपूर कोशिश कर रहे हैं लेकिन जब तक वहाँ के डाक्टरों की आत्मा नही जागेगी तब तक कुछ नही होने वाला है 

Sunday, August 5, 2012

mere rajy me ye kya ho rha hai


पिछले कुछ दिनों से भागलपुर से निकलने वाले हर अख़बार में प्रीतम हत्याकांड से जुडी कोई ना कोई खबर  जरुर रहती है .अब तो राज्य के मुख्यमंत्री ,पुलिस के आला अधिकारी ,गुप्तचर विभाग इत्यादि भी इसके गहन अनुसन्धान  में जुट गए हैं ,लेकिन नतीजा शून्य ही है .स्थिति बड़ी भयावह है .
                                                      घटना के बारे में सोच के दिल दहल जाता है . इसका मतलब तो यही निकलता है की हमारे आपके ,जिसके बच्चे, बाहर पढ़ते हैं ,ट्रेनों में  सफ़र करते हैं ,बिलकुल असुरछित हैं? कहने के लिए तो रेल पुलिस भी है .लेकिन असलियत यही है की यहाँ जाने पर आपकी शिकायत दर्ज  करना तो दूर आपको भगा ही दिया  जाता है .जैसा की प्रीतम के साथ हुआ . स्थानीय थाना स्थानीय लोगों के दवाब में रहती है ,बाहरी व्यक्ति  की शायद ही कोई मदद करता है .खास क़र अगर वह कोई रसूख दार ना हो क़र एक गैर राज्य का अकेला विद्यार्थी हो .
            प्रीतम हत्या कांड में अभी तक कुछ ठोस नतीजा नहीं निकला है .इसलिए हम सुनी सुनाईबातों को जोड़ क़र देखें तो पता चलता है ,की प्रीतम ,असम के सिलचर कॉलेज के प्रिंसिपल का एकलौता बेटा था .आगे पी.एच.डी की पढाई करने अपने घर से दिल्ली जा रहा था .वह ए.सी .कोच में सफ़र क़र रहा था .झगडे की शुरुआत ,स्थानीय बिना आरछित यात्री के सीट पर सोने को ले क़र हुई  .
प्रीतम रात के लगभग  दो- ढाई बजे जब अपनी सीट पर सोना चाहता था .उसे ऐसा नहीं करने दिया गया .इसे लेकर कोच के टी.टी .सी .से कुछ बहस भी हुई .प्रीतम और उस यात्री से भी कहा-सुनी हुई 
वह एक लोकल बदमाश था जो वहीँ नौगछिया स्टेशन  पर प्रीतम के सर्टिफिकेटों से भरे बैग और लैपटॉप ले क़र उतर गया .अपने बैग को पाने के लिए प्रीतम भी उसके पीछे उतर गया .
                                                          सर्टिफिकेट और लैपटॉप की कीमत क्या होती है ,यह एक 
स्टुडेंट ही समझ सकता है .वहीँ से उसने अपनी माँ को अंतिम वार फोन किया था .   फिर वह जी .आर .पी.के पास गया .जहाँ से उसे टरका दिया गया .वह स्थानीय थाने पर भी गया .वहाँ भी किसी ने उसकी सहायता नहीं की .    तब तक शायद उन्ही गुंडों ने बैग लौटाने के बहाने या जबरदस्ती उसे अपने साथ ले गए होंगे .प्रीतम को दो दिनों तक गुंडों ने अपने पास रखा .लेकिन पुलिस कुछ पता नहि लगा पाई .घटना के दो दिन बाद उसकी हत्या ,गला रेत क़र क़र दी गयी .......फिर लाश को पटरियों पर फेंक दिया गया .
                                        अपने माँ -बाप का इकलौता होनहार बच्चा ,किन परिस्थितियों में मारा गया अभी तक कुछ पता नहीं .जबकि तीन जिलों की पुलिस ,बिहार के मुख्यमंत्री ,डी.जी .पी .वगैरा
भी इस कांड पर नजर रख रहे हैं .इतने रसूखदार लोगों के रहते हुए जब अभी तक कुछ पता  नहीं लग पाया है तब तो हम आम लोगों का भगवान ही मालिक है .


Thursday, July 26, 2012

kuchh bhi nahi badla hai.

मेरे बचपन की यादें प्रायः धनबाद या यों कहें चासनाला{ कोलियरी}से जुडी  हुई हैं बाबूजी कोलवौसरी में काम करते थे .पोस्ट के साथ घर बदलते  रहे ,लेकिन रहना चासनाला में ही हुआ . इसलिए बचपन के सभी दोस्त सहेलियां वहीं के हैं .धनबाद से लगाव इसलिए है क्योंकि मिडिल स्कूल के बाद हाईस्कूल ,कॉलेज की पढाई धनबाद से ही हुई . हमलोग हररोज बस से घंटे, डेढ़ -दो घंटे सफ़र कर धनबाद जाते थे . स्कूल -कॉलेज की मस्ती में बस यात्रा का एक  अलग ही अध्याय है .हमलोग सुबह के निकले देर शाम घर लौटते थे .इसलिए हर कोई अपना लंच बॉक्स साथ ले कर आता था .और हमें उसी के भरोसे पूरा दिन बिताना होता था क्योंकि कैंटीन के पैसे - कभार ही मिलते थे ,वो भी उन पैसों से हम अक्सर आइसक्रीम ही खाया करते थे .  बस में चढ़ते ही सबसे पहले हमारे टिफिन की चेकिंग होती थी ,अगर कुछ दिलचस्प हुआ तो तभी सब चट कर जाते थे .
प्रायः रोटी- पराठा कोई जल्दी नहीं  था  हम मज़बूरी में लंच टाइम में खाते थे .   बस में अगर खिड़की वाली सीट मिल गई तो जीवन धन्य !   जाते वक्त अन्ताक्छ्री का खेल नहीं होता था .पूरे रास्ते हम भूरे रंग की मैना ढूंढते जाते थे .वो भी जोड़े में .क्योंकि टू फॉर जॉय और वन फॉर सौरो जो होता था .थ्री फॉर गेस्ट और फोर फॉर लेटर और न जाने क्या -क्या ,अब  तो उतना याद  भी नहीं है .
                                                    रास्ते में कई मजनुओं के परमानेन्ट ठिकाने थे और कुछ रईश जादे बाइक से बस के आगे -पीछे किया करते थे .  हमारा सफ़र इन्ही सब का मज़ा लेते ,बड़े मजे में कटता था .  और हाँ ,रास्ते में एक बोय्ज कॉलेज भी पड़ता था .'राज कॉलेज 'झरिया .वहाँ पहुँचते ही हम सब सावधान हो जाया करते  थे .क्योंकि कभी-कभी प्रेम -पत्र के साथ ढेला वगैरा भी फेंका जाता था .
                                              शाम को लौटने समय अक्सर अन्ताक्छ्री होती थी .उसमे माला चटर्जी बड़ा अच्छा गाती थी .हम कभी-कभी उसे अपनी सीट दे कर गाना  थे .  हमारी प्रायः जोड़ी या तिकड़ी हुआ करती थी .
रीता कोहली और रेनू तिवारी हमे ,हंसा -हंसा के लोट -पोट ,कर दिया करती थी. मेरी  मीरा और आरती की तिकड़ी थी .मीरा श्रीवास्तव थोड़ी अलग थी .उसकी जल्दी किसी से पटती नहीं थी वैसे वो बीमार भी रहा करती थी .माटला सबसे बाद में आई लेकिन वो हम सब पर छा गई .
                                                             महिला -स्कूल ,कॉलेज का अनुशासन बड़ा सख्त रहा करता है .
हमारे बस का ड्राइवर और खलासी भी हमारा गार्जियन जैसा था ,अपने स्टॉप के अलावा अगर कहीं और उतरे तो सीधे प्रिंसिपल मैडम के पास कम्प्लेन पहुँच जाता था . पता नहीं इतनी लड़कियों के अलग -अलग चेहरे उसे याद कैसे रहते थे
                                     काफी सीनियर होने के बाद ,हमने एक  फिल्म देखने की योजना बनाई .
  फिल्म थी 'लव -स्टोरी '.  हम बस वाली लड़कियों के लिए गेट से निकलना  मना था .हमारे बस के ड्राइवर 'हरी -भाई 'हरदम गेट के पास ही मंडराते रहते थे .....हम  तेरह लड़कियां थीं , यानि' फुल- रो '.  कैसे हमने वो लक्छमन रेखा पार की ये हम ही जानते हैं .ये फिल्म मुझे कभी नहीं भूलेगी .
                                                    हम सभी आर्ट्स के थे ,इसलिए पढ़ाई का लोड हम पर कम ही था .बस
परिक्छा के पहले जम कर पढ़ लिया करते थे .लेकिन इसलिए कॉलेज के हर सांस्क्रतिक कार्यक्रम ,चुनाव ,सरस्वती पूजा ,पिकनिक वगैरा में हम  जरुर भाग लिया करते थे .हमारा ग्रुप कॉलेज में छाया हुआ था .
                                                           कॉलेज से निकलते -निकलते प्रायः हम सभी की  शादी हो गई .मेरी शादी तो कॉलेज से निकलने के एक साल पहले ही हो गई .शादी के बाद मै साड़ी पहन कर कॉलेज जाने लगी .
 सच साड़ी में तब बड़ी दिक्कत होती थी .शादी के बाद कॉलेज में हम  सिर्फ ससुराल और हसबैंड की बातें किया करते थे .शादी -शुदा होने के बाद से अब हमें थोड़ी छुट मिलने लगी थी .हम कॉलेज से ही हीरा पुर  मार्केट जाया करते थे .अपने लिए चूड़ी या श्रृंगार का सामान खरीदने .
                                                      रिटायर्मेंट के पहले ही बाबूजी ने   धनबाद में अपना मकान  बनवा लिया
सो चासनाला लगभग छुट ही गया .हाँ पुतुल दी  चूँकि कन्द्रा में रहती है इसलिए कभी -कभार उसी रस्ते से आनाजाना हो जाता है  तो पुरानी यादें फिर से  ताजा हो जाती हैं .
                                                      कुछ दिनों पहले भी मै सिंदरी गई थी ,उसी स्कूल -कॉलेज वाले रास्ते से हो कर .दुनिया बदल  गई है लेकिन झरिया से धनबाद का वो रास्ता वैसे का वैसा है .लगता है समय वहां के लिए ठहर सा गया है .जमीन के  अन्दर की आग की वजह से वहां के लोग दम साधे झरिया के धसने का इंतजार कर रहे हैं ......दुकाने ,सड़क के किनारे की ऑफिस की बिल्डिंग ,सरकारी क्वाटर ,मंदिर वगैरा जस की तस हैं कुछ भी नया  नहीं बना है हाँ पहले के मकान जर्जर जरुर हो गए हैं .काले धूल की परत और मोटी चढ़ गयी है
फिर भी मुझे  वही अच्छा लगता है मानो किसी टाइम मशीन से हम वापस उसी युग में लौट गए हों
                                     

Tuesday, July 24, 2012

is var mai pchas ki ho gayi.

आज सुबह  ही  मैंने  इन से कहा ,सुनिए कल मै पचास की हो जाऊँगी .इन्होंने कहा ,अरे वाह ! गोल्डेन  जुबली इयर !मैंने कहा हाँ .आप तो पता नहीं कब ,चुपके -चुपके पचास कौन कहे पचपन के  हो  लिए . लेकिन मै इस तरह ख़ामोशी में विश्वाश नहीं रखती .मै तो पूरे डंके की  चोट पर पचास की होऊँगी .कोई रोक सके तो रोक ले !इन्होंने फिर कहा बच्चे तो पास हैं नहीं फिर जन्मदिन वगैरे मनाएगा कौन?बड़े लोग अपने आप थोड़े ही न कुछ  करते हैं .लोग क्या कहेंगे .मैंने कहा अरे क्या जरुरी है की कोई मनाए   तभी  हम खुश हों . कल रविवार रहेगा ही ,हम सुबह की शुरुआत चाय पीते हुए ''रंगोली ''देखने से करेंगे .(सच कहूँ ,सुबह-सुबह दूरदर्शन पर पुराने गाने सुनने का कुछ अलग ही मज़ा है ).फिर मै अपनी पसंद का खाना बनाउंगी  'खूब तीखा चटकदार '!खाना खा कर हम विक्रम शिला पुल पर जायेंगे ,वहां से सावन में उफनती गंगा की धारा को देख कर ,कहीं बाहर ही डिनर करके लौट आयेंगे .  तो बोलो ''हैप्पी बर्थडे टू मी ''.

Sunday, July 1, 2012

कल काफी दिनो बाद किसी  बच्चे के जन्मदिन की पार्टी में जाने  का मौका मिला .वहां पहुँचने पर ढेर सारी यादें  ताजा हो गईं .जब तुम लोग छोटे थे .महीनो पहले  से जन्मदिन का इंतजार शुरू  हो जाता था .नए कपडे ,पार्टी और फिर गिफ्ट .वहां भी  वही हाल  था .दो छोटी -छोटी लड़कियां थीं ,जन्मदिन एक का था लेकिन दोनों की   तैयारी बराबर थी .एक ने झालर वाली फ्रोक पहनी थी तो दूसरी ने नेट का शलवार कुर्ता  ख़रीदा था .वो तो बस अपना दुपट्टा ही सम्हालने में  व्यस्त थी .मैचिंग चूड़ियाँ ,क्लिप ,हेयर बैंड ,और दोनों की जूतियाँ भी मैचिंग थीं .काफी गर्मी पड़ रही थी लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी   नहीं थी .घर में म्यूजिक सिस्टम नहीं है कोई बात नहीं ,पापा के मोबाईल के गाने पर ही बच्चे बड़े मजे से डांस कर रहे थे .छोटा सा कमरा था .  कुर्सियां कम थीं ,हमलोग बिस्त्तर पर चढ़ कर बैठे थे .सारा  खाना घर में ही बना था .बच्चों की मम्मी परेशान थी हांलांकि पड़ोसिने मदद जरुर कर रही थी .बच्चों के पापा बाहरमेहमानों के स्वागत में लगे थे .मुझे अपने समय की याद आ गयी .तब तुम्हारे पापा भी पहले से घर में  मेरी कुछ मदद नहीं  थे हाँ ऐन मौके पर जरा जल्दी आ कर मेहमानों के पास जरूर बैठ जाते थे .ये मुझे पार्टी वार्टी मनाने से मना नहीं करते थे मेरे लिए यही बहुत बड़ी बात थी .मेरा भी यही हाल  हुआ करता था सारा कुछ मुझे  ही सम्हालना होता था ,लेकिन कितना मन लगता था।इतना सारा काम करके भी थकावट नहींहोती थी तुम्हे खुश देख कर मन गदगद हो जाता था .      

Thursday, May 24, 2012

bachhon ka mohak sansar

बेटे ने प्लस टू पास किया .अब बाहर के कॉलेज में एडमिशन लेने की तैयारी है .कभी बंगलौर ,कभी दिल्ली ,मुंबई कोल्कता ,का नाम उछलता है .अंततः उसने दिल्ली में एडमिशन लिया .लेकिन यार दोस्त दूसरी जगहों में बंट गए .
अब आई जाने से पहले गेट टू गेदर पार्टी की .हर बार पैसे लेकर घर के बाहर ही पार्टी होती थी .मै भी निश्चिंत रहती थी .कौन ,अकेले इतना परेशान हो .लेकिन इस बार मामला थोड़ा अलग था .वैभव ने कहा ,मम्मी इस बार हम थोडा ज्यादा समय साथ गुजारना  चाहते हैं  .क्यों न अपने  दोस्तों को घर पर ही बुला लूँ ? सुनते ही मैंने कहा न बाबा न ,एक तो  मेरा इतना छोटा घर ,और फिर तुम्हारे उत्पाती दोस्त .पूरे  घर को कबाड़ खाना बना के रख देंगे .और फिर घर में दावत यानि पुरे दिन पकाते रहो ,और अंत में ये छोकरे ,आंटी ,छोले चंगे बने थे कह कर चल चल देंगे .लेकिन वैभव कहाँ मानने वाला था .उसकी प्लीज मम्मी ,प्लीज शुरु हो गयी .कहने लगा ,नहो तो हम लोग छत पर ही खाना खा लेंगे .मैंने कहा और तुम लोग जो हल्ला -गुल्ला और लाउड मिउजिक सुनोगे .बाद में मुहल्ले वालो के ताने मुझे सुनने पड़ेंगे .खैर ........वैसे घर में चार बच्चे आ जायें तो
अच्छा ही लगता है .
                                समय शाम के सात बजे का रखा गया था .  लेकिन ये क्या ,ये नमन तो छे ही बजे चला आ रहा है .आते ही सीघे रसोई घर में घुस आया .कहा .आंटी मै घर में बोर हो रहा था ,सोचा वहीँ चलता हूँ .आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया ?मै बिरयानी के लिए चावल धो रही थी .फिर कहने लगा ,आंटी ,आप काफी थकी लग रही हैं .मुझे चाय बनानी आती है मै  आपके लिए चाय बना देता हूँ .मैंने सोचा वाह कमाल है इसे कैसे
पता चल गया ,अभी सचमुच मेरा चाय पीने  का मन था .    जब तक चाय बनी मैंने झटपट कचौड़ियों के लिए
आटा गूँथ लिया .वैभव कोल ड्रिंक्स लेने गया हुआ था तब तक वो भी आ गया .चाय पीते  हुए नमन ने कहा
आंटी ,मै तो सोसल कॉज के लिए किसी n g o से जुड़ना चाहता हूँ .ढेर सारे औब्संस हैं पोल्युसन ,कुपोसन .
असिक्छा .वगैरा -वगैरा .तब तक सभी आ गए बहस छिड़ गयी .सबके अपने अपने तर्क थे .वैभव समाज के अछूतों पर डॉक्युमेंट्री बनाना चाहता है .पहवा भोजन प्रिय है .उसे तो होटल मेनेजमेंट ही करना है।सभी हँसते हैं ,यार तू तो इंस्तित्युत का भट्टा ही बैठा देगा .राहुल इकलौता है उसे यहीं रहना है .मुम्मी -पापा के पास घर का बिजनेस है उसे वही सम्हालना है .सभी दोस्त उसे अपने अपने मम्मी -पापा काभी  ख्याल रखने को बोलते
हैं .फंस गया बेचारा .
                         इसबीच सबों ने कोल ड्रिक्स पि लिया चिप्स वगेरा चलते रहे .कब नौ बज गए पता ही नहीं चला .मैंने बीच से उठते हुए कहा अरे तुम लोग खाओगे कब ?इस बीच मैंने बिरयानी बना ली थी .सिर्फ कचौड़ियाँ तलनी  बाकी थी सुनते ही सारे  उठ खड़े हो गए .हाथो हाथ खाना टेबल पर लग गया .अंकित ने कहा
आंटी मुझे पुरियां तलनी आती है फिर तो मै बेलती गयी , फटा फट कचौरियां बन गयीं बच्चों ने मुझे परोसने भी नहीं दिया .कहा हम सब कुछ अपने आप ले लेंगे आप हमारे साथ ही खाइये .खाने के दौरान भी बातों का  सिलसिला जारी रहा .बच्चों की उमंग का कोई ठिकाना नहीं था .     बच्चों का संसार भले ही थोडा अपरिपक्व
हो .लेकिन कितना मोहक होता है .





Thursday, May 17, 2012

nangi sachchai se samna

अभी मैं गावं में हूँ .हमारा गावं वैसा ही हैआम सा, न उतना पिछड़ा ,की सारे  घर फूस के हैं और नउतना आधुनिक की पक्के मकानों की वजह से गावं ,गावं नहीं शहर लगने लगे .वैसे सभी संपन्न घरों में टी.वी . का प्रवेश हो चूका है .तो स्वभाविक है टी.वी अपने साथ इक नइ संस्कृति भी लाता है .लोग विचारों से बाद में बदलते हैं ,लेकिन  रहन सहन  , पहनावा जल्दी बदल  जाता है .खैर ......जो भी हो .
                                             मेरा  ध्यान जिस बात  ने खींचा ,वो ये थी की गावं के मकान में मोटर और पानी की टंकी लगाने के लिए जो मिस्त्री हमारे घर   आया वो मुसलमान था .हम ठहरेब्राह्मण .शहरों में हम जैसे भी रह लेते हों .लेकिन  गावं में माताजी की वजह से अभी भी छुआ छुट  उंच -नीच की भावना बनी हुई है .गावं में हमारा ज्यादा समय हाथ धोने में ही बीतता  है .मन से सहमत न रहते हुए भी ,हम उनकी खातिर वैसा करते हैं .
                             वो मिस्त्री ,सुबह आठ बजे ही आ जाता था .जाहिर है उसका खाना -पानी ,चाय नाश्ता ,सब हमारे ही घर चलता था .घर में उसके लिए  अलग बर्तनों की  व्यवस्था थी .जो में उससे छुपाना चाहती थी .
क्यों की शहरों में जो हमारे मुस्लिम  दोस्त है उनके साथ तो हम ऐसा नहीं करते .  बड़ी गर्मी थी जब मोटर लगाने के लिए पाईप खोला जाने लगा तो उसने  खुद पूछा , क्या आपके यहाँ कोई प्लास्टिक मग और ग्लास नहीं है ताकि में अपने लिए उसमे पानी भर के रख सकूँ ?मुझे सुन के   बड़ा अजीब लगा ,मैंने महसूस किया ,इन्हें पता है  की  हम  लोग इनसे परहेज करते हैं अपने बर्तनों में इन्हें खाना नहीं परोसते हैं .क्यों की खाना खा कर वो अपनी थाली धो कर किनारे रख देता था   सभ्य समाज की ये नंगी सच्चाई है .जिसे एक वर्ग निर्विकार रूप से स्वीकार करके चल रहा है .तभी तो यह व्यवस्था अभी तक चल रही है 
   

Thursday, May 10, 2012

हमारी शिलोंग यात्रा

जब से काका की पोस्टिंग शिलोंग हुई थी ,हम जाने का मन बना रहे थे लेकिन किसी न किसी वजह से हमारा जाना नहीं हो पा  रहा था.अन्तः इस साल केअप्रेल के दुसरे सप्ताह में हमारा कार्यकम बन ही गया .
                                 हम इस लिए भी शिलोंग जाना चाहते थे क्योंकि हमारा रास्ता गुवाहाटी हो कर था 
और वहीँ देवी कामख्या का मंदिर भी है.कामरूप कामख्या का वर्णन मैंने कई  किताबों में पढ़ रखा था .
और हमारे मिथिलांचल में तो कई  किम्वदंतीयां प्रचलित थी की वहां की औरतेबड़ी  मायावी होती हैं ,जो बाहरी आदमियों को अपने वश में कर के भेदा बना देती हैं .जिस के चलते जो एक बार रोजगार की खोज में यहाँ आया वापस नहीं जा पता था . लोक गीतों में प्रचलित 'मोरंग"भी वही है .
                                  वहां की महिलाएं सचमुच मोहक होती हैं ,अपने पारंपरिक पोशाक में तो वोऔर भिभी सुन्दर लगती हैं।हाँ!मंदिर प्रांगन मेढेर सारे भेदा भीथे मुझे लगा कहीं वे सारे बिहारी मजदुर तो नहीं ?
                                     मंदिर की बनावट ,खास करके उसका गर्भ गृह रोमांचित करता है .देख कर लगता है की कभी यह् औघड़ों का साधना स्थली रहा होगा वैसे अभी भी काफी संख्या में धुनी जगाये औघड़ मिल जाते हैं .
वैसे तो अभी पुरे मंदिर में बिजली किपूरी व्यवस्था है .लेकिन गर्भ गृह में बल्व नहीं लगा है,जिस सेवातावरण में एक  रहस्यात्मकता का आभास होता है .जिस से श्र्र्धहा बढती है .
                                          गुवाहाटी जा कर पास से गेंदों को नहीं देखा तो क्या देखा .हमें भी उसे उसके अभ्यारण्य में जा करउसे  देखने का मौका मिला.लोग हाथी पर चढ़ कर उसे देखने जाते हैं .हमने भी हाथी 
की सवारी का आनंद उठाया .यह हमारे लिए एक नया  अनुभव था .(जीवन सार्थक   किया ).
    पता नहीं गेंदे जैसे निरीह प्राणी को देखने के लिए लोग हाथी  पर चढ़ कर क्यों जाते हैं उसे तो वैसे भी पास से जा कर देखा जा सकता है शायद उसके चारों और जो बनैले सूअर घूमते रहते हैं उस कारण से जाते हों      

Thursday, April 26, 2012

mera jivan


   अब तो धरती का बोझ बन गयी हूँ .
     आखों से कम दिखता है ऊँचा सुनने लगी हूँ .
         दाहीना हाथ सुन्न हो गया है,
         पैरों में हरदम दर्द रहता है 
        दोनों किनारों के दाँत टूट गए हैं 
        ठीक से चबा भी नहीं पाती हूँ.
   खाया-पीया पचता नहींहै ,
 पेट कभी ठीक नहीं रता .
         कमर दर्द के कारण झुक नहीं पाती 
       अकारण सरमे दर्द रहता है .
  बच्चे कहते हैं इलाज करवाओ .
अरे ,इतनी बीमारी एक साथ सुन के तो डाक्टर भी पगला जायेगा .
       बच्चे अब बड़े हो गए हैं ,किसी को अब मेरी जरुरत भी नहीं रह गयी है.
   उदेश्यहीन जीवन जी रही हूँ,धरती का बोझ बन गयी हूँ.