Monday, October 13, 2014

दस्तक


मौत दस्तक दे रही है.

मै तक़दीर वाली हूँ की ,
मौत दस्तक दे रही है
                यूँ मौत आती है ,चुपके से
                हमें साथ ले जाती है .
                हमारे  जाने के बाद ‘
                लोग ढूढते हैं बहाने
                यूँ अचानक जाने का .
मै तकदीर वाली हूँ
मौत दस्तक दे रही  है .
                  अचानक किसी के जाने के बाद ,
                  लोग बनाते  हैं बातें ,
                  ये किया होता,वो न कर सका .
मै तकदीर वाली हूँ
मौत दस्तक दे रही है .
                  मुझे मोहलत मिली है .
                 निपटाने  हैं कई काम ,
                  कुछ देना है, कुछ पावना है .
मै तक़दीर वाली हूँ .
मौत दस्तक दे रही है .
                  कुछ रिश्ते हैं ,कुछ नाते हैं .
                 कुछ बंधन हैं ,कुछ गांठें है
                  छोड़ रक्खा था उन्हें ,दोराहे पे .
                  संशय था ,द्वंद था .हाँ या ना ?
मै तक़दीर वाली हूँ
मौत दस्तक दे रही है .
                    खुल चुकी हैं गांठें ,अब कोई बंधन नही ,
                    सीधा रास्ता है ,मंजिल करीब है .क्योंकी ,
                     मौत दस्तक दे रही है .             

Wednesday, September 3, 2014

रोना तो बनता है .



ईश्वर ने सबके लिए एक कोटा सिस्टम लागू कर रखा है .यह सब चीजों पर साबित होता है चाहे वो खुशी हो ,गम हो, मिठाई हो, तेल-मसालेदार भोजन हो, वगैरा वगैरा ............अगर आप इन चीजों को थोडा थोडा करके उपभोग करेंगे तो जीवन भर इन्हें पाएंगे .पैसे की ही बात करें,कैसे-कैसे अमीर कंगाल बन जाते हैं खैर ,इस सिस्टम की मार मुझ पर कैसी पड़ी बताती हूँ..जीवन के शुरूआती दिनों से ही मुझे रोना धोना बिलकुल पसंद नहीं था.बल्कि जरा सी बात पर रो देने वाले लोगों पर मै  हँसती थी .बाबू जी हमे फिल्मे खूब दिखाते थे .सिनेमा हॉल में पुतुल दी, मरने- धरने वाले सीन में हिचकियाँ ले कर रोती थी .हॉल से बाहर आने पर हम रो-रो कर लाल हुई नाक देख कर हंसते थे .सिर्फ हम ही नहीं हॉल से निकलने वाले सब लोग उसकी ओर देखते जाते थे .सच कहूँ किसी -किसी सीन पर मेरी भी आखों में आंसू भर आते थे.लेकिन अपनी इमेज खराब ना हो जाये इस डर से ,हॉल के अँधेरे का फायदा उठा कर छुपा कर आंसू सुखा लेती थी.

फिर रोने का एक जबर्दस्त इवेंट आया .पुतुल दी का दुरागमन.{गौना}.पुतुल दी की शादी और दुरागमन चूँकि गांव से हुई थी इसलिए रोने –धोने का कार्यक्रम खूब चला.मैथिलों में लडकियां ससुराल जाते समय गा-गा कर रोती हैं .माँ गे माँ ,हम तोरा बिन कोना क रहबौ गे माँ ,काकी ये काकी ,हमरा बिसरब नहि ये काकी ,बाबू जी यौ बाबू जी हमरा जल्दी मंगवा लेब यौ. हर रिश्ते के लिए अलग लाइन .पूरी जिंदगी शहर में रहने वाली पुतुल दी !,पता नहीं उसने इतना अच्छा परफोरमेंस कैसे दिया.उसकी शादी में इतने लोग आए थे की मेरी बारी नही आई .वैसे भी उस समय मेरे मन में उसके लिए रोने की भावना एकदम नही थी.एक तो वो मुझ से चार साल बड़ी थी .फिर उसका और मेरा ग्रुप भी अलग था .माँ कभी-कभी उसे मुझे कहीं साथ ले जाने के लिए कहती भी थी तो वो मना कर देती थी.मुझे बुरा नही लगता था .क्यों की उसके खेल लड़कों वाले थे,खो-खो कब्बडी ,पिट्टो जैसे खेल. मेरा गुड़ियों का संसार था .

पर उस दिन पता नही क्यों ,मुझे बड़ी जोर की रुलाई आने लगी.अपने नही रोने-धोने वाली लड़की की इमेज खराब होने की बड़ी चिंता थी .मै दौड कर सोने वाले कमरे में घुस गयी और कोने में बिस्तर के ढेर पर बैठ कर फूट –फूट कर रो पड़ी.किसी को फुर्सत नही थी मुझे चुप कराने की ,हाँ मुझे लगा लोग खिडकी से झांक रहे थे .लेकिन उस वक्त माहौल वैसा था तो रोना तो बनता था.

फिर मेरी शादी, दुरागमन की बारी आई .माँ,बाबू जी ,भाई –बहन.अपने घर को छोड़ कर ,एकदम नए लोगों के घर जाना और वहीं रह जाना .मुझे सोच कर घबराहट हो रही थी.मै दिल से रो रही थी .मेरा परफोरमेंस अच्छा नही हुआ था.लेकिन कामा दीदी {पीसी माँ }गा-गा कर ,मेरे गले लग कर खूब रोइं

बाबू जी का अचानक ,समय से पहले गुजर जाना.मेरे लिए बेहद त्रासद था. एक रोने- धोने को नापसंद करनेवाली को जीवन भर उनकी याद रुलाएगी.क्यों की वो थे ही इतने अच्छे.मुझे हर मौके पर उनकी याद आती है .उनके जाने की खबर मिलने के काफी देर बाद हम उन तक पहुंच सके थे.उन्हें बर्फ पर रखा गया था .लोग कहते हैं ,मरने के बाद अपने लोगों से भी डर लगता है.ऐसा कुछ भी नही हुआ.गाड़ी से उतर कर ,मै दौड कर उन तक पहुंची.उनके बर्फ से ठंडे पांवों पर अपना सर रख कर रोती रही .मै वहाँ से हटना नही चाह रही थी लेकिन मुझे लोग हटा कर अंदर ले गए. ऐसे में रोना तो बनता ही बनता है .











Friday, August 8, 2014

परिवर्तन ,एक पडाव

हमने अपना घर बदल लिया है पहले वाला छोटा था. ये काफी बड़ा सा है.वो घर छोटा भले ही था लेकिन उसमे सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी .दो मंजिला घर था हम ऊपर रहते थे.इसलिए छत हमारी थी .छत मेरी पसंदीदा जगह थी .घर के निर्जीव सामान चाह वो कितने कलात्मक क्यों न हों ,रोज –रोज एक ही सामान देखते देखते मन ऊब जाता है. फर्नीचर की जगह बदलने से कुछ ही दिनों के लिए नयापन आता फिर वैसे का वैसा.
                    वहाँ मैंने छत पर ढेर सारे गमले इक्ठा कर रखे थे .चार पांच रंगो के अडहुल ,कनैल ,श्रीन्हार ,एलोविरा का तो एक बार अगर लग गया फिर इतनी तेजी से बढ़ता है की फिर बार बार उसे निकाल कर फेकना पड़ता है इन अतिरिक्त पौधों के लिए पुराने गमले ,बाल्टी सब में मिट्टी डाल कर सहेजना, मेरा समय बड़े आराम से कट जाता था.बच्चों के बाहर चले जाने के बाद का जो खालीपन सा पैदा हो गया था उसे भरने में मेरी बागवानी के शौक ने बड़ा सहारा दिया  .
              छत पर मैंने एक अलग दुनिया बसा रखी थी.मौसम का नया फूल मुझे रोमांचित कर देता था.कागजी निम्बू  के पौधे की मैंने दो साल तक सेवा की ,तब उस पर फूल आए.फिर तो मेरा मन करता था ,हर घर आने जाने वालों को निम्बू की कलियाँ जरूर दिखाउ.
                     सरकारी क्वाटरों की जर्जर हालत ,कॉलोनी के आस-पास की गंदगी ,दुर्गंध करता जमा हुआ पानी ,अंततः हमे कोलोनी छोडना पड़ा किसी कोलोनी में रहने के अपने मजे हैं .आपके प्रति उनका सरोकार ,हर बात की जिज्ञासा ,सुख दुःख में साथ देने की प्रवृति .हमे कभी अकेलेपन का एह्शास नही होने दिया .
             अब हम एपार्टमेंट में आ गए हैं .क्वाटर के मुकाबले ये घर काफी बड़ा है.खिड़कियां बड़ी -बड़ी हैं और उन में शीशे लगे हैं इससे पूरा घर प्रकाशित और हवादार है .
               अपार्टमेंट की दुनिया भी अजीब होती है .भीड़ में अकेला वाली कहावत इसके लिए काफी सही है .अगल-बगल ढेर सारे लोग रहते हैं.सुबह से आवाजे आनी शुरू हो जाती हैं .सटे-सटे घर हैं ,कभी-कभी तो ऐसा लगता है कोई हमारे घर में बोल रहा हो.लेकिन ये सच है की किसी को आपके घर में झाँकने की फुर्सत नही है.सामने वाले फ़्लैट में युवा दम्पति रहते हैं दोनों कामकाजी लोग हैं सुबह निकलते हैं उनके ताला बंद करने की आवाज से मै समझ जाती हूँकि वो जा रहे हैं फिर शाम को उनका घर खुलता है.तेज म्यूजिक बजता रहता है इसलिए किसी के बोलने की आवाज सुनाई नहीं देती.दाहिने ओर एक कम उम्र माँ है पति शायद सारे दिन घर से बाहर रहता है दो छोटे बच्चे हैं एक ने स्कूल जाना शुरू ही किया है,वो कभी एक को पढाती कभी दूसरे को पुचकारती है लेकिन घरके काम का बोझ फिर दो छोटे बच्चों को सम्हालना ऐसे में गुस्सा बड़े पर उतरता है पीटनेकी आवाज से मै व्याकुल हो जाती हूँ .लगता है छोटे बच्चे को मै अपने पास बुला लूँ ,माँ का बोझ कुछ तो हल्का हो जाएगा .एक है  दलजीत .उसकी मम्मी सारे दिन  उसे पुकारती रहती है.उठ दलजीते ,नास्ता कर दल्जीते,अब स्कूल के लिए तैयार हो जा दलजीते,होमवर्क क्यों नहीं करता दलजीते ,टीवी बंद कर दलजीते. लेकिन ये दलजीत भी कोई चीज है.मम्मी लाख पुकारे ,करता व्ही है जो उसका मन .जी करता है ,उस नटखट दलजीत से कहूँ क्यों अपनी मम्माको इतना तंग करते हो?हमारे उपरवाले फ्लोर पर शायद एक वृद्धा रहती है ,चलने फिरने से लाचार,सारे दिन उनकी फरमाइशें चलती रहती हैं .घर में शायद कम लोग है .कई-कई बार मांगने के बाद कोई पास आता है वो तब तक दूसरी जरूरत पेश कर डालती हैं .जब उन्हें कोई पानी देने में देर करता है मुझे बडी अकुलाहट होती है .
         बहरहाल जब रहना यहीं है तो सोचती हूँ खुद उनके घर जा कर परिचय  करूं .
             

                      

Sunday, May 11, 2014

एक अपूरणीय क्षति .


हमारे बड़ा काका पं.तारा कान्त झा जी का गुजर जाना हमारे विशाल परिवार पर क्या असर डालेगा ये तो दूर की बात है,लेकिन फ़िलहाल तो ऐसा लगता है जैसे हमारे सरों पर से छत हट गई हो.इतने विशाल परिवार का मुखिया होना.दस भाई दस बहने, उनके संबधी ,सम्बन्धियों के संबंधी सबकी अपेक्षाएं.ना जाने कैसे निभाते होंगे = अपने विनोदी स्वभाव से सबका दिल जीत लेते थे मुझे याद है,,उमा दीदी और पुतुल दी की नई-नई शादी हुई थी ,दोनों शादी के बाद काका को प्रणाम करने आई ,तब उन्होंने अनायास ही पूछ लिया की?बौर पसंद पड़लखुन? दोनों शर्म से लाल हो गईं थी .
                      यह तो हुई अपने परिवार की व्यथा .लेकिन पूरे  मैथिल समाज के लिए उनका जाना दुर्भाग्य पूर्ण है.मैथली को संविधान की आठवी सूची में शामिल करवाने का भागीरथ प्रयास ,और उसमे सफल होना,हमे गर्व से भर देता है .इसी तरह अलग मिथिलांचल का उनका सपना ,पता नही अब साकार हो भी पायेगा या नही उनके जैसा जुझारूपन किसी अन्य में नही दिखता .उनका चुनाव नहीं जीत पाना ,पूरे परिवार के लिए अफ़सोसनाक होता था .लेकिन अपने सिधान्तों से समझौता नही किया.
                         विधानपरिषद  के सभापति के रूप में उनका कार्य काल ,विधान् परिषद के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा .सम्पूर्ण भारत वर्ष की नामी हस्तियाँ उनके व्यक्तिगत सम्बन्धों के कारण आए .पूरे वर्ष चलने वाला यह आयोजन उनकी व्यवहार कुशलता के कारण काफी सफल रहा .अभी अतिथिगण उनकी मेजबानी की प्रसंसा करके गए ..
                  ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व वाले व्यक्ति का सम्बन्धी होना हमे गर्व से भर देता है हम उनके नाम से जाने जाते हैं।  .उनके चले जाने से जो अपूरणीय क्षति हुई है उसकी  भरपाई संभव नही है  हे ईश्वर ,उन्हे सद् गति देना .हमारी विनम्र श्रद्धांजली .
                     

Friday, April 11, 2014

बचपन में चुनाव


प्रिय वैभव,अभी चुनाव के दिन चल रहे हैं.तुम्हे तो पता ही है ,चुनाव के समय बिहार का बच्चा –बच्चा ,राजनीति बतियाने लगता है तुम शायद दिल्ली में  इसे मिस कर रहे होगे .है न ?
           मुझे पुराने दिन याद आ रहे है तुम  तब काफी छोटे थे शायद तीन साल के होगे .तुम्हारे पापा को मारवाड़ी कॉलेज के होस्टल का सुप्रिटेंडेंट बना दिया गया था ,हम हॉस्टल के क्वाटर में रहने आ  गए थे होस्टल में अराजक स्थिति थी ..तब वो जगह  छुटभैये नेताओं का अड्डा बना हुआ था ..संयोग से उसी समय विधानसभा के चुनाव की घोषणा हो गई .उनका चुनाव चिन्ह शायद कुर्सी था कुछ और था मुझे याद  नहीं आ रहा है. खैर....... होस्टल मे सारे ,दिन उन नेता के चेलों के साथ-साथ जिंदाबाद –जिंदाबाद के नारे लगाने में तुम्हे बड़ा मजा आता था उन्हों ने तुम्हे सिखा रखा था की अपने मम्मी –पापा को बोलना वोट भैया जी को ही देंगे .  .चूँकि तुम काफी छोटे थे इसलिए हम वोट देने के लिए बूथ पर भी तुम्हे साथ ले गए .तुम्हारे नटखटपन के चलते तुम्हे घर पर छोडना खतरे से खाली नहीं था  .जब मै कमरे में वोट डालने जा रही थी कि तुम भी साथ जाने को मचलने  लगे.तब इतनी कढ़ाई नहीं हुआ करती थी .तुम्हारा हठ देख  कर पुलिस वाले ने तुम्हे मेरे साथ अंदर भेज दिया .नयी चीज देखने की उत्सुकता वश ,तुमने मैंने किसे वोट दिया था देख लिया वो कुर्सी छाप बिलकुल नहीं था  ,हे भगवान , फिर क्या था तुमने वहीँ जोर –जोर से रोना धोना शुरू कर दिया .सभी हंस रहे थे .तुम रो –रो के विलाप किये जा रहे थे .मम्मी तुमने कुर्सी छाप को वोट क्यों नहीं दिया ?मेरे भैया जी क्या बोलेंगे.वो नहीं जीत पाएंगे  .हा.हा.हा.बड़ी मुश्किल से हम तुम्हे मना कर घर लौटे. .                             

Wednesday, March 19, 2014

भोली जनता


आजकल स्थानीय अख़बारों में बड़े ज़ोर शोर से पूछा जा रहा हैं, 'हे मतदाताओं, बता तेरी मर्ज़ी हैं क्या? तेरा एम. पी कैसा हो?'

बेचारा मतदाता बड़े जोश में ये वो गिनाता हैं और खुश हो जाता हैं की चलो किसी ने पूछा तो. वैसे इस बार जैसी हवा हैं, शायद वोट भी गिरा दे. और फिर नतीज़ो का इंतेज़ार.
लेकिन आह! भोली जनता ! तुम इत्मिनान रखो. कहीं कोई देवदूत सांसद बनने वाला नहीं हैं. अगर कोई बनना भी चाहे तो उसकी टाँग खींचने वाले इतने हैं की बेचारा मुँह के बल गिरेगा.
इसीलिए, ए देश की जनता, तुम इन दिनो को 'एंजाय' करो. चाहे वो टी.वी देख कर हो या फिर रैली में जा कर. मुफ़्त मे अगर आना/जाना/खाना मिल रहा हैं तो क्या हर्ज़ हैं. या चलो जी भर के दारू पीने को मिल रहा है तो और भी अच्छी बात हैं. लगा देना दो -चार ज़िंदाबाद के नारे, क्या फ़र्क पड़ता हैं.
फिर तो वही तुम, वही तुम्हारी जर्जर सड़के, घूसखोर अफ़सर, तुम्हारे भ्रष्ट नेता. तुम्हे कोई फ़र्क नही पड़ने वाला हैं. क्यूँकि तुम्हे इन सब चीज़ों की आदत पड़ चुकी हैं. आख़िर 67 साल बहुत होते किसी आदत को निखरने  के लिए.

Saturday, March 1, 2014

बाबू जी की याद में..


अब हमे अंधेरों से डर नहीं लगता .


रात के अंधियारे में टिमटिमाते हैं अनगिनत तारे
बचपन से सुन रखा है ,वे तारे नहीं ,हमारे हैं .
       जो छोड़ गए ,हमें जल्दीबाजी में,
      उनको भी चैन नहीं जमाने में .
देख रहे होते हैं वे हमे , अंधियारे में.
       अब हमे अंधेरों से डर नहीं लगता ,क्यों की
       कोई अपना अधेरों में भी साथ रहता है .
                                  गर कभी  कहीं फिसले जो हम ,अँधेरे में
               तभी तारा कोई टूट कर, राहें दिखाता है .

Friday, February 28, 2014

ये बेपेंदी के लोटे !


ये बेपेंदी के लोटे !
आम चुनाव सर पर है .हमारे भावी नेता , जो संसद में हमारा प्रतिनिधित्व करेंगे वे अभी तक पसोपेस में हैं की कौन से दल में जाएँ? फ़िलहाल पूरे देश में दल-बदल की मुहीम सी चल रही है.कायदे से हर दल का कोई न कोई सिध्हांत होता है  होना ये चाहिए की अगर आप उस दल के विचारों से सहमत हैं तभी उस दल विशेष का टिकट लें ,लेकिन हमारे ये बेपेंदी के लोटे नेता !जिधर टिकट दिखा उधार लोट गए !इधर हम आम जनता ,अपने पसंदीदा नेता को ,जो सारी जिंदगी ,जिस पार्टी को पानी पी पी कर गरियाते रहे थे ,{साथ में हम भी] आज उसी दल में शामिल हो जाते हैं. लो अब? भारतीय राजनीति का अभी यही दौर चल रहा है .कुछ समझ में नहीं आ रहा है ,अपने नेता को थामे या दल को ?                               .

Sunday, January 26, 2014

कम था गम न् था .

                                       कम  था, गम  न  था
                 सर  रख  कर  रोने  को  
                              एक  कंधे  को  जाना  था
                              वो  कंधा  भी  पत्थर  था

                              मै  सारी   रात  रोई  थी
                              उसी  पत्थर   के  कंधे  पर
                                                   
                               सुबह  देखा  तो  कंधे  को
                               खड़ा  वो  मुस्कुराता  था
                               मेरे  आँसू  से  वो  अपना
                               जालिम  दिल  बहलाता  था

                               मुट्ठियाँ  भींचे  रहती  हूँ ,
                               जो थोड़ा   है  फिसल   न  जाए
                               दिया  जिसने  वो थोडा  सा
                               कहीं वापस  न  ले  जाए  ,
       
                                बांधी  है  डोर जीवन  की
                                उसी  तिनके  के  छोरों  से