Monday, June 25, 2018

हमारी शिलौंग यात्रा

जब से काका की पोस्टिंग शिलोंग हुई ,हम वहां जाने  का मन बना रहे थे .लेकिन किसी न किसी वजह से हमा कार्यक्रम नहीं बन पा  रहा था .आखिर इस अप्रैल के  दुसरे सप्ताह  में हमारा प्रोग्राम बन ही गया .
                      हम इस लिए भी शिलोंग जाना चाहते थे क्योंकि उसका रास्ता गुवाहाटी  हो कर है और गुवाहाटी में ही जग प्रसिघ्ह कामख्या देवी का मंदिर है .कामरूप कामख्या का वर्णन मैंने कई किताबों में पढ़ रखा था .और फिर हमारे मिथिलांचल में तो इस बारे में कई तरह की किम्वदंतियां प्रचलित हैं जैसे वहां की औरते बड़ी मायावी होती हैं जो बाहरी आदमियों को कबूतर या भेदा बना के अपने पास रख  लेती हैं .इस लिए जो एक  बार कमाने के लिए  आसाम जाता था लौट के कम ही आता था . लोक गीतों में प्रचलित मोरंग भी वही जगह है .
                                     वहाँ की महिलाएं सचमुच मोहक हैं ,अपने पारम्परिक पोषक में तो वो और भी मोहक लगती हैं .(मंदिर प्रांगन में ढेर सारे कबूतर और भेड़ें थे क्या  वो सभी बिहारी मजदुर ही रहे होंगे ?)
                                   मंदिर की बनावट खास कर के उसका गर्भ गृह रोमांचित करता है .वास्तव में देख कर लगता है की यह जगह औघड़ों की साधना के लिए उप युक्त है .वैसे तो पुरे मंदिर में बिजली की व्यवस्था है,लेकिन गर्भगृह में कोई बल्व नहीं लगाया गया है इससे उस जगह की रहस्यात्मकता को बरकरार रखा गया है .इस से एक स्र्ध्हा का माहौल बनता है .
                                   गुवाहाटी जा कर अगर गेंडा नहीं देखा तो क्या देखा .हमने भी उसे उसके  अभ्यारण्य में 
जा कर, पास से देखा .गेंदा देखने हम लोग हाथी  परचढ़ कर गए थे यह भी हमारे लिए एक नया अनुभव था .
पता नहीं गेंदे जैसे निरीह प्राणी को देखने के लिए लोग हाथी पर चढ़ कर क्यों जाते हैं ?फिर वो तो बेचारा शाकाहारी भी होता है  .इतनी मोटी चमड़ी ,इतना विशाल शरीर ,लेकिन हाव -भाव   और मुद्रा से बड़े मासूम और भोले लगते हैं मुझे तो बड़े प्यारे लगे .उनकी  इतनी बड़ी संख्या देख कर  सोचने लगी कही यहाँ भी कुछ माया का चक्कर तो नहीं ? 

देश भक्ति कैसे?

हम फिल्म देख रहे थे अचानक पर्दे पर राष्ट्रगान दिखाया जाने लगा , सभी दर्शक उठ खड़े हुए लेकिन मैं अपने पैरों की समस्या की वजह से उठ नहीं पाई .जब राष्ट्रगान खत्म हुआ  तो मुझे   लगा कि हर कोई मुझे देख रहा है   मेरी मजबूरी थी फिर मुझे डर लगने लगा । इन दिनों देश का माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि  ।कुछ स्वयंभू  नेता अपने  आप को भारतीय संस्कृति का रक्षक ,तथा कथित  देश भक्त।  ये लोग अपने तरीक़े से देशभक्ति  की व्याख्या  करते है ।उनके मुताबिक ,अगर  मैं जेएनयू में पढ़ती होती तो मुझे राष्ट्रद्रोही मान लिया जाता। अगर मैं मुस्लिम होती तो मुझे गद्दार मान लिया  जाता  ।फिर चाहे पुलिस से शिकायत हो या  पिटाई सबक सिखाने को कुछ भी  कर सकते हैं।

मैं हिंदू हूं क्योंकि मैंने हिंदू परिवार में जन्म लिया है मैं भारतीय हूं क्योंकि मैंने भारतवर्ष में जन्म लिया है   जन गण मन भारत का राष्ट्रीय गान है ((जो वस्तुतः चारण गान है) । हमें  उसका सम्मान करना चाहिए ।

में हिंदू हूं  लेकिन पूजा करने की मेरी कोई  बाध्यता  नहीं है।

मैं भारतीय हूं उसे साबित करने के लिए मुझे कोई बिल्ला नहीं लगाना पड़ता है ।

 वैसे ही  अपनी देशभक्ति को दिखाने के लिए  राष्ट्रगान के समय उठ खड़े होने की कोई बाध्यता  नही होनी चाहिए ।में मुझे लगता है ,सार्वजनिक   या मनोरंजन  स्थल पर राष्ट्रगान बजाना सही नही है । ना चाहते हुए भी हम उसका वह सम्मान नहीं  कर पाते हैं जो करना चाहिए  ।

Friday, June 22, 2018

प्रवासी न हो

आज कल की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हमसे काफी कुछ छूट रहा है । कुछ ऐसा जिसकी अहमियत हमे फ़िलहाल तो महशूस  नहीं हो रही है। लेकिन हमारे आने वाली पीढ़ी को इसकी कमी जरूर खलेगी | अपनी जड़ों से कटा आदमी जैसे मॉरीसस कभी फिजी के लोग अपनी जड़ों को जानने की बेचैनी में भारत आते हैं | उन्हें कोई कमी नहीं है फिर भी अपने मूल को जानने की इच्छा वहां की मिटटी से जुड़ाव महशुस होता है | 

अब,जब यहां भी हम अपने रिश्तों से तेजी से कट रहे हैं | हमारे घर भी कोई मेहमान नहीं आता | हमारी दुनिया छोटी से छोटी होती जा रही है मियां बीवी बच्चे किसी चाचा मामा फूफा मौसा की कोई जगह नहीं है | 

जबकि अतिथि देवो भवः  की भावना हम भारतीयों में अब भी है। हम जो भी खाते  हैं इच्छा रहती है कि मेहमानों को उससे बेहतर खिलाएं। हर घर में कुछ बर्तन, चादर, टेबल क्लॉथ, सोफा कवर, क्रॉकरी, वगैरा अलग रखा जाता है। मेहमानों के आने पर स्वागत करने के  लिए होता है। अगर  मेहमान के आने की पूर्व सूचना हो तो पूरा घर चमक उठता था  और अचानक घर आए मेहमानों के आने पर भी दरवाज़े तक पहुंचते पहुंचते टेबल पर कोई बढिया कपड़ा जरूर बिछ जाता था। ये कोई तीस पैतीस साल पहले के चलन की चर्चा कर रही हूं।  मेहमान के आते ही कुछ मीठे  के साथ पानी  दिया  जाता था  फिर फटाफट पूरी  और  आलू की भुजिया। गेस्ट खास हो तो सूजी का हलवा और पापड़। 

   ये  वो  जमाना था जब  लोग धडल्ले से डालडा खाते थे ,पचाते थे । अगर मेहमान महीने के अंत मे आए, और अड़ोसी पड़ोसी से काम नही चला, तो किराने  दूकान से खाते पर समान मंगवाये जाते थे।लेकिन आव-भगत मे त्रुटि न हो।

फिर धीरे धीरे बिस्कुट दालमोठ ,से काम चलने लगा | न मेहमान  फुरसत से आते हैं न लोगों में इतनी आत्मीयता रह गई है | अब तो फ्रिज में मिठाई पड़ी रहती है ,क्रॉकरी नई  की नई धरी  रह जाती है   | अब गेस्ट नहीं आते