आज कल की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हमसे काफी कुछ छूट रहा है । कुछ ऐसा जिसकी अहमियत हमे फ़िलहाल तो महशूस नहीं हो रही है। लेकिन हमारे आने वाली पीढ़ी को इसकी कमी जरूर खलेगी | अपनी जड़ों से कटा आदमी जैसे मॉरीसस कभी फिजी के लोग अपनी जड़ों को जानने की बेचैनी में भारत आते हैं | उन्हें कोई कमी नहीं है फिर भी अपने मूल को जानने की इच्छा वहां की मिटटी से जुड़ाव महशुस होता है |
अब,जब यहां भी हम अपने रिश्तों से तेजी से कट रहे हैं | हमारे घर भी कोई मेहमान नहीं आता | हमारी दुनिया छोटी से छोटी होती जा रही है मियां बीवी बच्चे किसी चाचा मामा फूफा मौसा की कोई जगह नहीं है |
जबकि अतिथि देवो भवः की भावना हम भारतीयों में अब भी है। हम जो भी खाते हैं इच्छा रहती है कि मेहमानों को उससे बेहतर खिलाएं। हर घर में कुछ बर्तन, चादर, टेबल क्लॉथ, सोफा कवर, क्रॉकरी, वगैरा अलग रखा जाता है। मेहमानों के आने पर स्वागत करने के लिए होता है। अगर मेहमान के आने की पूर्व सूचना हो तो पूरा घर चमक उठता था और अचानक घर आए मेहमानों के आने पर भी दरवाज़े तक पहुंचते पहुंचते टेबल पर कोई बढिया कपड़ा जरूर बिछ जाता था। ये कोई तीस पैतीस साल पहले के चलन की चर्चा कर रही हूं। मेहमान के आते ही कुछ मीठे के साथ पानी दिया जाता था फिर फटाफट पूरी और आलू की भुजिया। गेस्ट खास हो तो सूजी का हलवा और पापड़।
ये वो जमाना था जब लोग धडल्ले से डालडा खाते थे ,पचाते थे । अगर मेहमान महीने के अंत मे आए, और अड़ोसी पड़ोसी से काम नही चला, तो किराने दूकान से खाते पर समान मंगवाये जाते थे।लेकिन आव-भगत मे त्रुटि न हो।
फिर धीरे धीरे बिस्कुट दालमोठ ,से काम चलने लगा | न मेहमान फुरसत से आते हैं न लोगों में इतनी आत्मीयता रह गई है | अब तो फ्रिज में मिठाई पड़ी रहती है ,क्रॉकरी नई की नई धरी रह जाती है | अब गेस्ट नहीं आते
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