Tuesday, November 3, 2015

सत्यम के लिए।

सत्यम वेंटिलेटर पर है ।जीवन दान के सारे द्वार बन्द हो चुके हैं बस ,एक द्वार है जो थोड़ा। सा खुला है,वो ईश्वर का का द्वार ।हम सभी उसी चौखट पर सर  पटक रहे हैं , इस उम्मीद पर की उनके द्वार से कोई खाली नही जाता ।वही कोई चमत्कार करें की हमारा गोलू मोलु सा लाड़ला वापस आ जाये।

Friday, April 3, 2015

गांव ,आज- कल

अरसों  बाद कुछ दिनों के लिए गांव में रहने का अवसर मिला .मन में गांव कि एक मीठी स्मृति बसी हुई थी .बाबु, हमारे बड़े दादा जी उनकी नोइस {सुंघनी }के महक से भरी, बड़ी सी रजाई .जिस में घर के सारे बच्चे समा जाते थे .कुछ उनकी गोद में बैठते थे बाकि आस-पास उनसे सट के घुसे रहते थे .बाबु सभी  को समेट कर ,कभीसाते भवतुरटवाते थे तो कभी कोई संस्कृत का श्लोक,,निरंतर श्रीमन नारायण-नारायण का जाप उनके.पोपले मुख की निश्चल हंसी ,हमारी शरारतों पर भी उनका खिलखिलाना अभी भी कानो में गूंजते हैं .हमारे दादा जी गुस्सैल स्वभाव वाले थे .ऐसे में उनकी बड़ी सी रजाई ,हमारी रक्षा कवच का काम करती थी.स्नेहमयी दादी माँ ,मिठाई बाँटने में भले अपने पोतों को सारी मिठाई बाँट आती थी या वे उच्चके पोते ,उनसे झपट लिया करते थे .कभी-कभी बहुओं पोतियों के लिए कुछ भी नही बचता था लेकिन उनके स्नेह की मिठास अभी भी स्मृतियों में घुली हुई  है .
           गांव अब वो गांव नही रहे .गांव के मूल स्वरूप में जिस तेजी से  बदलाव आया है ,देख कर मन थोडा क्षुब्द हो उठा .पता नही क्यों ,हम खुद तो आधुनिक बनने की  होड़ में शामिल हुए रहते हैं लेकिन गांव ,हमे पुराने रूप का चाहिए होता है ,दरअसल परिवर्तन रहने ,पहनने में आए तो अच्छी बात है लोगों का जीवन स्तर बढ गया है .हर मकान पक्के का है .दालान पर प्राय्ह दो पहिया या चारपहिया है.लेकिन जिस समाजिकता ,सौहाद्र शुद्धता के लिए गांव जाना जाता था वही नदारत हो  है .


              मै बहुत पुराने दिनों की बात नही कर रही हूँ ,यही कई बीस से पच्चीस साल पहले तक गांव के घर चौकोर आंगन वाले हुआ करते थे ,आगे बरामदे के लिए जगह छोड़ के ,लाईन से कमरे बने रहते थे .अगले हिस्से में सड़क की तरफ से दालान हुआ करता था .दालान के दोनों छोर पर कमरे होते थे जिससे आंगन में प्रवेश किया जा सकता था .फिर भी घर के बगल से एक संकीर्ण रास्ता छोड़ा जाता था जिससे तरकारी बेचने वालियां घुसा करती थी .आंगन के दुसरे छोर पर भी रास्ता था जो बाड़ी की ओर जाता था वहीं चापानल था स्नानघर इत्यादि था वही रास्ता बाहर की ओर निकल जाता था किसी में कोई दरवाजा नही होता था न उसकी जरूरत समझी जाती थी कोई भी किसी के आंगन में मुंह  उठा के आ-जा सकता था .जहां तक मुझे याद है गांव के अघिकता घर इसी खांचे के बने होते थे। लेकिन अब जो नए मकान बन रहे है वे सारे किसी किले से कम नही होते,हाते की ऊँची घेरा बंदी करके मुख्य द्वार पर ग्रील लगा दिया जाता है ,जिसमे दिन में भी ताले जड़े रहते है ,गृह स्वामी ग्रिल के अंदर अपने धन के अहंकार में चूर ,किसी के आने  की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं  कोई किसी के यहाँ नही जाता सबके अपने अपने किले है जिसमे सबों ने अपने आप को कैद करके रखा है .वो खुलापन ,वो सादगी ,वो भाईचारा जिसके कारण गांव ,गांव जैसा लगता था . वो मिट्टी की सोंधी महक ,जब आंगन को मिट्टी और गोबर से लीपा जाता था मिट्टी की महक की जब मैंने चर्चा की तो किसी ने बड़ी तीखी टिप्पणी की ,कहा, खुद तो आपलोग अब आलीशान अपार्टमेंट में रहते हैं और गांव में आप मिट्टी की महक चाहते हैं .गोबर से आँगन कौन लीपे ,घरेलू काम की सहायता के लिए तो आदमी लोग मिलते नही ,फिर ये कौन झंझट मोल ले .पर्व त्योहारों में भी यही भावना बनी रहती है. लोग कम ही निकलते है .गाहे बगाहे मिल लिए तो ठीक वरना किसी को किसी की परवाह नही है .उधर युवा वर्ग टी.वी.के पीछे पागल है.प्रतिभावान बच्चे आगे की पढाई के लिए जैसे तैसे निकल जाते हैं बचे हुए दिग्भ्रमित युवा बिरादरी के दांव पेंच में अपनी उर्जा को व्यर्थ कर रहे हैं.टी.वी.  में दिखाए जा रहे जीवन स्तर,,फैशन की नकल ने  अविभावको का जीना मुहाल कर रखा है .लड़कियों का एक मात्र लक्ष शादी होता है .ब्यूटीपार्लर वालियों के पौ बारा हैं. .लडके अपने शौक की पूर्ति के लिए दहेज का सहारा लेने में जरा नही झिझकते हैं .गावों की यह स्थिति देख कर बेहद हताशा होती है .मन में यही आया इससे तो शहर अच्छा .   !

Monday, January 19, 2015

पहाड़ों का आमंत्रण

जब पर्यटनकी बात चली तो ढेरों नाम जेहन में उभरे ,कहीं भीड़-भाड़ की वजह से तो कहीं आवागमन की असुविधा के कारण कुछ तय कर पाना मुश्किल लग रहा था , तब अचानक मुझे अल्मोड़ा का नाम सूझा. शिवानी जी को मैंने जब से पत्रिकाएँ पढनी शुरू की तब से पडती रही हूँ .धर्मयुग ,साप्ताहिक हिदुस्तान ,सारिका में अक्सर उनकी कहानियाँ उपन्यास छपते थे .
उनके लिखने की अदभुत शैली से ,मै ही नहीं सब लोग उनकी कहानियों ,उपन्यासों के दीवाने थे. घर में साप्ताहिक हिदुस्तान और धर्मयुग पत्रिका आती थी , कौन पहले पढेगा इसके लिए कभी कभी छीना –झपटी की नौबत आ जाती थी .
              किसी कथाकार के कथादेश की यात्रा करना इतना रोमांचक होगा मुझे इसका अनुभव नही था .मै कहूँ की मुझे सब कुछ जानी-पहचानी चीजें लग रही थी तो कुछ गलत नही होगा.ऐसा चित्र लिखित सा वर्णन चाहे वो सड़क की  हम सफर पगली नदी हो या देवदार के ऊँचे पेड़, जिसे उन्होंने अनंत काल की तपस्या में लीन सन्यासी कहा है .रास्ते में पड़ने  वाली चाय की दुकाने आम सी थी चाय भी बढिया पिलाते थे .लेकिन  मुझे तो शिवानीजी की कथाओं वाली चाय की  दुकान की तलाश थी आखिर वो मुझे अल्मोड़ा शहर के छोटे से बाजार में दिख गई .छोटी सी दुकान ,कोयले के धुएं से काली पड़ी दुकान ही नही बिस्कुट के मर्तबान , दीवार पे टंगे वर्षों पुराने कैलेण्डर ,कालिख की वजह से कुछ पता नही चल रहा की उनमे किस देवता की तस्वीर होगी लेकिन मामला देवताओं वाला था इसलिए उन्हें हटाना लाजमी नही रहा होगा . कोयले की अंगीठी पर चढा अलमुनियम का सौसपेन,जिसके बाहर कोयले की कालिख को साफ करना छोड़ दिया गया था .हम जब गए तो चाय चढ़ी हुई थी ,ढेर सारी गोल दाने वाली चाय पत्ती को कडछी से औटा जा रहा था ,दुकान के अंदर एक बेंच लगी थी वैसे स्थानीय लोग बाहर खड़े खड़े चाय पी रहे थे .मै अंदर घुस कर बेंच पर बैठ गयी .साथ के लोगों ने मुझे हैरानी से देखा मैंने बिना लोगों की मर्जी पूछे चाय का ऑडर दे दिया .शीशे के छोटे ग्लासों में चाय आ गयी .चाय पीने में अच्छी थी सो सबों ने मजे ले कर चाय पी .
तभी ,दुकान के सामने एक प्रौढ व्यक्ति आ रुके ,तीन इंच की वर्गाकार ,मोटी सी शिखा ,जिसके अत में गांठ थी .बदन पर शर्ट, मैली सी धोती .शायद वो भी चाय पीने रुके थे .मुझे उनके उपन्यासों में वर्णित वैद ज्यु मिल गए थे .गढवाली ब्राह्मणों का हुबहू वर्णित व्यक्ति सामने खड़ा था .मैंने उन्हें झुक कर प्रणाम किया ,उन्होंने थोडा अक्च्काते हुए स्वीकार किया .फिर हम लोग आगे बढ गए .शाम होने को थी ,हमे काफी कुछ देखना था .
                      बरसात के दिन थे ,इलाके में ऑफ सीजन चल रहा था ,इसलिए काफी कम भीड़ थी .अच्छा था .यहाँ शिमला -नैनीताल से कम लोग आते हैं,जबकि प्रकृति यहाँ अपने सुन्दरतम रूप में दिखती है ,जितना उपर जाओ ,उतना प्रकृति का पवित्र स्नेह मिलता है .इसमें यहाँ के सीधे -साधे ,भले लोगों का भी प्रभाव है .कर्मठ  और ईमानदार लोग .पर्यटकों को लूटने का काम नही करते .

यहाँ काफी गरीबी है ,अपने रोज की जरूरतें पूरी करने में उनका दिन बीत जाता है,सुन्दर गोरी चिट्टी गढवाली औरतें तराई में जलावन के लिए लकडियाँ चुनते दिख जाती हैं कभी सर पे पानी भर कर लाती हुई सब की नाक  में बड़ी सी नथ.जो उनके सौंदर्य को बढता है .मैंने पढा था ,ये नथें,उनकी हैसियत बताती है अमीरों की बहुएं ,ज्यादा बड़ी नथ पहनती है .मै उनकी न्थों को गौर से देखती थी .हाँ ,मुझे शिवानी जी की उन ,तीखे नैनों वाली रहस्यमयी नायिकाओं की तलाश थी जो छलावे की तरह आती थी और अंत में न जाने कहाँ चली जाती थी .शायद इसलिए मुझे नही मिली .
.पर्यटकों के आने से उन्हें कोई खास फायदा नही होता .बाहर की बड़ी पार्टी होटल खोल के मोटा फायदा उठती है .स्थानीय लोगों को बेयरे या ड्राइवर के रूप में रोजगार मिलता है .फिर भी ये अपनी धुन में मग्न रहते हैं . कभी फिर मौका मिले तो मै दोबारा यहाँ आना चाहूंगी .

कथा यात्रा शिवानी जी की याद में

जब पर्यटनकी बात चली तो ढेरों नाम जेहन में उभरे ,कहीं भीड़-भाड़ की वजह से तो कहीं आवागमन की असुविधा के कारण कुछ तय कर पाना मुश्किल लग रहा था , तब अचानक मुझे अल्मोड़ा का नाम सूझा. शिवानी जी को मैंने जब से पत्रिकाएँ पढनी शुरू की तब से पडती रही हूँ .धर्मयुग ,साप्ताहिक हिदुस्तान ,सारिका
उनके लिखने की अदभुत शैली ,मै ही नहीं सब लोग उनकी कहानियों ,उपन्यासों के दीवाने थे. घर में साप्ताहिक हिदुस्तान और धर्मयुग पत्रिका आती थी , कौन पहले पढेगा इसके लिए कभी कभी छीना –झपटी की नौबत आ जाती थी .
              किसी कथाकार के कथादेश की यात्रा करना इतना रोमांचक होगा मुझे इसका अनुभव नही था .मै कहूँ की मुझे सब कुछ जानी-पहचानी चीजें लग रही थी तो कुछ गलत नही होगा.ऐसा चित्र लिखित सा वर्णन चाहे वो सड़क की  हम सफर वो पगली नदी हो या देवदार के ऊँचे पेड़, जिसे उन्होंने अनंत काल की तपस्या में लीन सन्यासी कहा है .रास्ते में पड़ने  वाली चाय की दुकाने आम सी थी चाय भी बढिया पिलाते थे .लेकिन  मुझे तो शिवानीजी की कथाओं वाली चाय की  दुकान की तलाश थी आखिर वो मुझे अल्मोड़ा शहर के छोटे से बाजार में दिख गई.छोटी सी दुकान कोयले के धुएं से काली पड़ी दुकान ही नही बिस्कुट के मर्तबान , दीवार पे टंगे वर्षों पुराने कैलेण्डर ,कालिख की वजह से कुछ पता नही चल रहा की उनमे किस देवता की तस्वीर होगी लेकिन मामला देवताओं वाला था इसलिए उन्हें हटाना लाजमी नही रहा होगा . कोयले की अंगीठी पर चढा अलमुनियम का सौसपेन,जिसके बाहर कोयले की कालिख को साफ करना छोड़ दिया गया था .हम जब गए तो चाय चढ़ी हुई थी ,ढेर सारी गोल दाने वाली चाय पत्ती को कडछी से औटा जा रहा था ,दुकान के अंदर एक बेंच लगी थी वैसे स्थानीय लोग बाहर खड़े खड़े चाय पी रहे थे .मै अंदर घुस कर बेंच पर बैठ गयी .साथ के लोगों ने मुझे हैरानी से देखा मैंने बिना लोगों की मर्जी पूछे चाय का ऑडर दे दिया .शीशे के छोटे ग्लासों में चाय आ गयी .चाय पीने में अच्छी थी सो सबों ने मजे ले कर चाय पी .
तभी ,दुकान के सामने एक प्रौढ व्यक्ति आ रुके ,तीन इंच की वर्गाकार ,मोटी सी शिखा ,जिसके अत में गांठ थी .बदन पर शर्ट, मैली सी धोती .शायद वो भी चाय पीने रुके थे .मुझे उनके उपन्यासों में वर्णित वैद ज्यु मिल गए थे .गढवाली ब्राह्मणों का हुबहू वर्णित व्यक्ति सामने खड़ा था .मैंने उन्हें झुक कर प्रणाम किया ,उन्होंने थोडा अक्च्काते हुए स्वीकार किया .फिर हम लोग आगे बढ गए .शाम होने को थी ,हमे काफी कुछ देखना था .
                      बरसात के दिन थे ,इलाके में ऑफ सीजन चल रहा था ,इसलिए काफी कम भीड़ थी .अच्छा था .यहाँ शिमला -नैनीताल से कम लोग आते हैं,जबकि प्रकृति यहाँ अपने सुन्दरतम रूप में दिखती है ,जितना उपर जाओ ,उतना प्रकृति का पवित्र स्नेह मिलता है .इसमें यहाँ के सीधे -साधे ,भले लोगों का भी प्रभाव है .कर्मठ  और ईमानदार लोग .पर्यटकों को लूटने का काम नही करते .

काफी गरीबी है ,अपने रोज की जरूरतें पूरी करने में उनका दिन बीत जाता है,.पर्यटकों के आने से उन्हें कोई खास फायदा नही होता .बाहर की बड़ी पार्टी होटल खोल के मोटा फायदा उठती है .स्थानीय लोगों को बेयरे या ड्राइवर के रूप में रोजगार मिलता है .फिर भी ये अपनी धुन में मग्न रहते हैं . कभी फिर मौका मिले तो मै दोबारा यहाँ आना चाहूंगी .