अरसों
बाद कुछ दिनों के लिए गांव में रहने का अवसर मिला .मन में गांव कि एक मीठी
स्मृति बसी हुई थी .बाबु, हमारे बड़े दादा जी उनकी नोइस {सुंघनी }के महक से भरी, बड़ी सी रजाई .जिस में घर के सारे बच्चे समा जाते थे .कुछ उनकी गोद में बैठते थे
बाकि आस-पास उनसे सट के घुसे रहते थे .बाबु सभी
को समेट कर ,कभी”साते भवतु“रटवाते थे तो कभी कोई संस्कृत का श्लोक,,निरंतर श्रीमन नारायण-नारायण
का जाप उनके.पोपले मुख की निश्चल हंसी ,हमारी शरारतों पर भी उनका खिलखिलाना अभी भी
कानो में गूंजते हैं .हमारे दादा जी गुस्सैल स्वभाव वाले थे .ऐसे में उनकी बड़ी सी
रजाई ,हमारी रक्षा कवच का काम करती थी.स्नेहमयी दादी माँ ,मिठाई बाँटने में भले
अपने पोतों को सारी मिठाई बाँट आती थी या वे उच्चके पोते ,उनसे झपट लिया करते थे .कभी-कभी
बहुओं पोतियों के लिए कुछ भी नही बचता था लेकिन उनके स्नेह की मिठास अभी भी
स्मृतियों में घुली हुई है .
गांव अब वो गांव नही रहे .गांव के मूल
स्वरूप में जिस तेजी से बदलाव आया है ,देख
कर मन थोडा क्षुब्द हो उठा .पता नही क्यों ,हम खुद तो आधुनिक बनने की होड़ में शामिल हुए रहते हैं लेकिन गांव ,हमे
पुराने रूप का चाहिए होता है ,दरअसल परिवर्तन रहने ,पहनने में आए तो अच्छी बात है लोगों
का जीवन स्तर बढ गया है .हर मकान पक्के का है .दालान पर प्राय्ह दो पहिया या
चारपहिया है.लेकिन जिस समाजिकता ,सौहाद्र शुद्धता के लिए गांव जाना जाता था वही
नदारत हो है .
मै बहुत पुराने दिनों की बात नही
कर रही हूँ ,यही कई बीस से पच्चीस साल पहले तक गांव के घर चौकोर आंगन वाले हुआ
करते थे ,आगे बरामदे के लिए जगह छोड़ के ,लाईन से कमरे बने रहते थे .अगले हिस्से
में सड़क की तरफ से दालान हुआ करता था .दालान के दोनों छोर पर कमरे होते थे जिससे आंगन
में प्रवेश किया जा सकता था .फिर भी घर के बगल से एक संकीर्ण रास्ता छोड़ा जाता था
जिससे तरकारी बेचने वालियां घुसा करती थी .आंगन के दुसरे छोर पर भी रास्ता था जो
बाड़ी की ओर जाता था वहीं चापानल था स्नानघर इत्यादि था वही रास्ता बाहर की ओर निकल
जाता था किसी में कोई दरवाजा नही होता था न उसकी जरूरत समझी जाती थी कोई भी
किसी के आंगन में मुंह उठा के आ-जा सकता था .जहां तक मुझे याद है गांव के अघिकता घर
इसी खांचे के बने होते थे। लेकिन अब जो नए मकान बन रहे है वे सारे किसी किले से कम नही
होते,हाते की ऊँची घेरा बंदी करके मुख्य द्वार पर ग्रील लगा दिया जाता है ,जिसमे
दिन में भी ताले जड़े रहते है ,गृह स्वामी ग्रिल के अंदर अपने धन के अहंकार में चूर
,किसी के आने की प्रतीक्षा में बैठे रहते
हैं कोई किसी के यहाँ नही जाता सबके अपने अपने किले है जिसमे सबों ने अपने
आप को कैद करके रखा है .वो खुलापन ,वो सादगी ,वो भाईचारा जिसके कारण गांव ,गांव जैसा लगता था . वो मिट्टी की सोंधी महक ,जब आंगन को मिट्टी और गोबर से लीपा जाता था मिट्टी की महक की जब मैंने चर्चा की तो किसी ने बड़ी तीखी टिप्पणी की ,कहा, खुद तो आपलोग अब आलीशान अपार्टमेंट में रहते हैं और गांव में आप मिट्टी की महक चाहते हैं .गोबर से आँगन कौन लीपे ,घरेलू काम की सहायता के लिए तो आदमी लोग मिलते नही ,फिर ये कौन झंझट मोल ले .पर्व त्योहारों में भी यही भावना बनी रहती है. लोग कम ही निकलते है .गाहे बगाहे मिल लिए
तो ठीक वरना किसी को किसी की परवाह नही है .उधर युवा वर्ग टी.वी.के पीछे पागल है.प्रतिभावान
बच्चे आगे की पढाई के लिए जैसे तैसे निकल जाते हैं बचे हुए दिग्भ्रमित युवा
बिरादरी के दांव पेंच में अपनी उर्जा को व्यर्थ कर रहे हैं.टी.वी. में दिखाए जा रहे जीवन स्तर,,फैशन की नकल ने अविभावको का जीना मुहाल कर रखा है .लड़कियों का
एक मात्र लक्ष शादी होता है .ब्यूटीपार्लर वालियों के पौ बारा हैं. .लडके अपने
शौक की पूर्ति के लिए दहेज का सहारा लेने में जरा नही झिझकते हैं .गावों की यह स्थिति देख कर
बेहद हताशा होती है .मन में यही आया इससे तो शहर अच्छा . !