ऐ शहर भागलपुर,तुम याद बहुत आओगे।
पूरे चालीस साल यहां रहने के बाद, इस सुंदर सी जगह,जिसे सिल्क सिटी के नाम से भी पुकारा जाता है,को हम छोड़ कर जा रहे हैं। कहना कितना आसान है सबकुछ छोड़ छाड़ के जाना उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है,वो लोग जिनके साथ इतने दिनो तक काम किया,हर सुख दुख में हमारे साथ रहे,हर पर्व त्योहार उनलोगो के साथ मनाया करते थे,अब तो हम इस कदर हिलमिल गए हैं की आपस में बिना कुछ कहे सुने मन की बात समझने लगे हैं, ऐसे रिश्तों को छोड़ कर जाना होगा सोच कर हमारा दिल बैठा जाता था।
हमें ये शहर छोड़ना है ये तय था क्योंकि हमारे बच्चे साथ नही रहते,और हवाई सुविधा न रहने से वे चाह कर भी नहीं आ पाते हैं।
अब हमने ग्रेटर नोएडा में रहने का फैसला लिया हैं
ग्रेटर नोएडा के अपने अपार्टमेंट की सोसाइटी के कैंपस में हम सामने की ओर देखते हुए, टहल रहे थे की पीछे से आवाज आई ,किसी ने कहा, प्रणाम सर ! वही चिर परिचित लहजा, हम खुशी से चौंक गए, मुड़ कर देखा, वो हमारे लिए अपरिचित थे ,बिहार से थे और इनके बारे में जानते थे।वैसे उनको देखकर हम खुश हो गए।
हम अपना रिटायर्ड जीवन यहां बिताने आए थे ।हमने ग्रेटर नोएडा को इसलिए चुना क्योंकि ये राजधानी के करीब होते हुए भी थोड़ा सस्ता था ,मेरा इलाज दिल्ली में चल रहा था।मौके बेमौके वे दो घंटे में हम तक पहुंच सकते थे।यहां सब चीज की सुविधा थी।पास में दुकानें थीं, मॉल था ,मैट्रो पास में था। वे इन सब सुविधा को समझ कर संतुष्ट थे की उन्होंने हमारे लिए सबकुछ कर दिया है पर इतना आसान नहीं होता ,एक झटके से सब कुछ छोड़ छाड़कर कहीं चल देना,तिनका तिनका चुन कर जोड़ा गया ये घोंसला,जान से प्यारे रिश्ते,कोई कैसे जी पाएगा भला।हम ठहरे छोटी जगह के साधारण इंसान,न कोई तड़क भड़क न दिखावा,जो अंदर है वो ही बाहर भी है सबको अपने समान समझने वाले,सब में अपनापन ढूंढने वाले ।
अब रहना पड़ रहा है बड़े शहर में।
बड़े शहरों का अपार्टमेंट कल्चर ,सबकी अपनी बंद दुनिया, कोई अनायास उसमें झांक नहीं पाता, महीनों किसी फ्लैट में रहने के बाद बगल वाले फ्लैट में कौन रहता है लोगों को पता नहीं होता ।अपने यहां लोग बारामदे में बैठकर ,खांस खांस कर अपना गला साफ कर रहे होते है, उधर गली के लोग खैरियत पूछने आ जाते हैं। रही अपार्टमेंट कल्चर की बात ,घर में लाश पड़े पड़े सड़ जाती है ,और तब पड़ोसी को पुलिस बताती है।
जब हमारे सामान ले जाने की बारी आई, बैठ कर सोचनेलगा इस जंजाल को कैसे समेंटूं ?बच्चों ने कहा बेकार की चीज़ें मत ले जाना,देखा तो सबकुछ काम का था,हैंडल टूटा कप भी नाप के सामान निकालने के काम में लगा था। प्लास्टिक के पुराने डिब्बे जो मैने बड़े जतन से जमा किया था कभी बिना जरूरत सिर्फ सुंदर डिब्बे की खातिर सामान खरीदने लेती , कभी डिब्बे पाने के लिए ,तीन किलो सर्फ घर ले आती।मुझे अपने सभी डब्बे प्यारे थे,डिब्बों को फेंकना मुझे मंजूर नही था ।मगर अंत तक ट्रक मे डिब्बों की गुंजाइश नही हुई आखिर काफी मन मसोस कर उन डिब्बों को काम वाली को देना पड़ा।
मुझे जान से प्यारी अपनी क्रोकरी थी पर ले जाना मुश्किल था ,उनके टूट जाने का डर था
इनका कहना था ,ये कभी काम नहीं आती,,अब मंहगी क्रॉकरी कोई रोज रोज क्यों निकाले , आजकल कोई गेस्ट नहीं आते (मेरे यहां ही नहीं, किसी के घर नहीं आते हैं ) इसमें उनकी क्या गलती और मुझे ये अच्छी तरह पता है , मैं इसे जिन्हे दूंगी वो भी इन्हे रखे रहेंगी।कुछ चीजें लोग सिर्फ सहेजने के लिए खरीदते हैं।
फर्नीचर के बारे में ये जाना,
पहले फर्नीचर पुश्तैनी हुआ करते थे,अब लकड़ी के सामान में मजबुती नही डिजा़ईन और अपनी सुविधा देख कर ,कपड़ों की तरह बदले जाते है।पहले हम सामान के साथ एडजस्ट करते थे अब एडजेस्टेबल फर्नीचर मिलता है ,एक टूटे हत्थे वाली कुर्सी जिस कुर्सी पर बैठ घर मुझे बड़ा सुकुन मिलता था उसे किसी को दे दिया ।फिर एक गौर करने वाली चीज और है,
अपनी कमाई से खरीदी चीज से मोह नहीं जाता,ये चीज हमने तब खरीदी थीं जब हमारी तनख्वाह बहुत कम थी आमदनी कम और जरूरतें ज्यादा होती थीं कुछ चीजें पैसे जोड़ कर खरीदा,कुछ दुकानदार से किश्तों में खरीदा, हर सामान के साथ उसका इतिहास जुड़ा था साथ ।वो बड़े उदासी वाले दिन थे,लगता था कोई अपना जुदा हो रहा हो।
ऐ शहर भागलपुर,तुमने मुझे डराया था बहुत।
मुझे अब भी याद है 31 जुलाई 1984 को मैंने पहली बार भागलपुर में कदम रखा।इनकी बहाली भागलपुर यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के रूप में हो गई थी,उन दिनों पूरे देश में ये शहर अपने अंखफोड़वा कांड के लिए बदनाम हो चुका था।ऐसे मे भागलपुर जाना ? पर नौकरी थी जाना तो था ही।
हमारे आने से पहले इन्होंने रहने का इंतजाम कर लिया था।लाला कोठी में किराए के दी छोटे कमरों से हमने गृहस्थी की शुरुआत की।घर में हम कुल साढ़े तीन लोग थे, मैं, मेरे पति,देवर हीरा और हमारी पहली संतान तूलिका।
शाम हो चुकी थी जब लाल कोठी के ऊबड़ खाबड़ रास्ते से चल कर हमारा रिक्शा इंजीनियर साहब के मकान से जा लगा। कोलफील्ड की कॉलोनी से निकल कर मोहल्ले में रहने की शुरुआत थी,बड़ा अजीब लग रहा था।दुर्योग से जिस रात हम लोग वहां पहुंचे , हमारी गली में तीन बम फूटे और कोई बदमाश गोलियां बरसता भागा, मैं दहशत में आ गई, डरकर मैने इनकी ओर देखा इन्होंने कहा तुम चिंता मत करो ये इनका आपसी मामला है आमलोगों को इससे कोई मतलब नहीं है,आगे इनकी बात सच निकली।
नई जगह में रहना इतना आसान नहीं होता अगर हमें पड़ोस में राम कुमार बाबू के परिवार का साथ नहीं मिलता। हम एक ही इलाके के रहने वाले थे ,उनकी बेटियों से मेरी खूब पटने लगी थी,पूरा परिवार तूलिका को सम्हालने लगा था।मेरा मन लग गया।
हम भागलपुर के वाशिंदे नहीं थे,नौकरी करने आए थे, हमें एक दिन जाना है ये हमने शुरू में ही ठान लिया था। ये दोस्त लोग थे जिनके बल पर हम यहां इतने सालों तक बड़े प्रेम से रहे।
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शहर भागलपुर जब तुझ पर खून के छींटे पड़ी थीं,मैं वहीं थी ।
भागलपुर में दंगा होना मेरा सबसे दर्दनाक अनुभव रहा ।धर्म की आड़ में कारोबार को बिगाड़ने या बढ़ाने की साजिश का परिणाम थे ये दंगे।भागलपुर शांतिप्रिय शहर था ओर है।आम मिलजुल के रहने वाले हैं लेकिन आपसी रंजिश को इतना बढ़ा दिया कि दंगा गांव गांव में फैलग देखते ही देखते मेरी नज़रों के सामने पूरी बस्ती में आग लगा दी गई।सारी रात औरतों के,बच्चों के रोने की आवाजें आती रही। दहशत से हमारी नींद उड़ गई थी,दरअसल जुलूस के आक्रमक होने की आशंका की वजह से हमे अपने घर में रहना सही नहीं लगा,हमारा मुहल्ले लाल कोठी की स्थिति बत्तीस दांतों के बीच जीभ जैसी थी, चारों तरफ से मुस्लिम बस्तियां थीं। चूंकि दंगे होना आम बात थी इसलिए देवर जी की सलाह पर हम कुछ देर के लिए लाल बाग चले गए हमारा उनके यहां से खूब आना जाना था बच्चे भी वहां जा कर खुश हो जाते, कुछ देर में ये बड़की बिटिया को स्कूल से लेकर वहीं गए ,उधर हमारे मुहल्ले लालकोठी के उल्टे तरफ तातारपुर में दंगे शुरू हो चुके थे।स्थिति कुछ इतनी बदतर हो गई हम वापस अपने घर नहीं जा पाए,बिहार की डंडा पुलिस देंगे को रोकने में नाकाम रही थी,जब तक केंद्रीय पुलिस आती दस दिन बीत गए,ये दस दिन जंगल राज था।जिसकी जहां चली मनमानी होती रही,मानवता टूक टूक रोई होगी। हम पढ़े लिखे लोग, किंकर्तव्य विमुढ़ बन गए थे ।गंगा के किनारे रहने वाले गंगोट हमारे रहनुमा बन बैठे थे।नरेश बाबू का परिवार और हमलोग कुल मिला कर घर में दस लोग हो गए थे इस अनिश्चिता के समय में क्या पता कब कहां से आगे की व्यवस्था होगी ,कहना मुश्किल था लेकिन उन लोगों ने हमे बड़े प्रेम रखा,घर में जो समान था उसी को मिलजुल कर खाते। पूरे दस दिन वहां रहने के बाद हम भागलपुर से निकल कर अपने गांव का पहुंचे,तब फोन की इतनी सुविधा नहीं थी ,बाकियों ने क्या किया कैसे उन भयावह दिनों को काटे,पूरे तीन महीने तक कोई खोज खबर नही मिली।जब तक दंगे चले हम भागलपुर नहीं लौटे अंतत: लाल कोठी छोड़ने की शर्त पर हमें वापस आने की मंजूरी दी गई।इस वार हमने तिलका मांझी में घर किराए पर लिया।इस दौरान परिवार क्या होता है,खूब समझ में आया,परिवार में बड़ों का रुतबा देखा, मन में उन लोगों के प्रति आदर बढ़ गया।एशहर भागलपुर हमने अपने सबसे अच्छे
दिन गुजारे हैं यहां।
भागलपुर में शैक्षणिक माहौल होने की वजह से मैंने अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने की सोची,इन्हे पता करने को कहा,वहीं रमेश सिंह जी मिले,संयोग से दोनों ने उसी पैनल से ज्वाइन किया था उनकी पत्नी ने भी अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने की सोची, और सुखद हैरानी की बात ये हुई की वो भी हिंदी वाली निकली।ये भागलपुर में सहेलियां बनाने की ये शुरुआत थी,इन के मित्र कृष्ण मुरारी जी की पत्नी निभा जी से भी परिचय हुआ,फिर तो हमारी चल निकली, हमलोगों की आपस खूब पटती थी।और मजे की बात ये की हमारा परिवार खुश होता जब हम सब साथ होते,उन दिनों की छोटी छोटी खुशियां हमारे जीवन को यादगार बनाती हैं।
एकदिन निभा ने ही,ध्यान दिलाया की
हम तीनों का नाम नी से शुरू होता था,निभा नीता,निर्मला ।हम हैरान हो गए।उधर कृष्ण चंद्र और कृष्ण मुरारी!दोनों मित्र के मिलते जुलते नाम पर हम खूब चुट
भागलपुर में घूमने फिरने की जगहें बहुत कम हैं और हम तीनों को घूमने फिरने का चस्का था होटल जाना या परिवार के साथ फिल्म देखने जाना, इनकी नौकरी की गरिमा के लिए सही नहीं था हमारे पास गाड़ी नहीं थी,हमे उसी स्कूटर के भरोसे मौज
मस्ती करनी थी। लेकिन हम चूकते
नहीं थे कभी अपने पलॉट पर या सैंडिस कंपांउंड में एकबार तो हमने बॉटनी डिपार्टमेंट के कैंपस में भी पिकनिक किया था बड़ी मस्ती भरे दिन थे।
उन्ही दिनों असफल अभ्यार्थियों ने
कोर्ट में इनकी बहाली को अवैध बताने की अपील कर दी। लगी लगाई नौकरी पर आई इस आफत को पैनल के लोगों ने एकजुट होकर जवाब देने की ठानी सबने पैसे जमा करके वकील नियुक्त किया जो इन्हें कानूनी रूप से सही ठहराए।
हम तीनों की पहली बेटी थी बड़े शौक से हमने उन्हें सबसे अच्छे स्कूल में डाला तुलु का एडमिशन सेंट जोसेफ में करवाया क्यों की वो हमारे घर से नजदीक था।
कहने को हम ग्रेड वन की नौकरी करने वाले वर्ग के थे लेकिन तनख्वाह बहुत ही कम थी वो भी कभी समय पर नहीं मिलती थी,अपने रहन सहन के स्तर को मेनटेन रखने टीके लिए ,न चाहते हुए भी प्राइवेट ट्यूशन करने का फैसला किया।अंगरेजी स्कूल के खर्चे,घर का किराया,अपनी हैसियत को बरकरार रखने के लिए हम बड़े हिफाजत से रहते ताकी, गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रुप से चलती रहे।
शहर भागलपुर तुमने हमें बहुत कुछ दिया,उम्मीद से दुगना दिया।
यहां रहने के दौरान परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी की हम लगभग पूरे शहर में रह कर देख लिया।
भागलपुर को अभी भी कस्बाई शहर कहा जा सकता है।हरी सब्जी,ताजी हवा,बातचीत में स्थानीय बोली की अधिकता ,शांत जीवन ,अपनी एक अलग पहचान के साथ जीना।बड़े शहरों में आदमी एक डिजिट मात्र कहलाता है।धड़ाधड़ अपार्टमेंट बन रहे हैं,फिर भी निजी मकानों की अधिकता है ,लोग एक दूसरे को नाम से पहचानते हैं।
लेकिन भागलपुर अभी भी वैसा ही है,जैसा आप इसे छोड़ कर गए होंगे,लगभग पचास साल पहले।
रेलवे स्टेशन भले ही आधुनिक और साफ सुथरा रहता है।पर जब आप स्टेशन के एक नंबर गेट से बाहर निकलते ही जो नजारा लोगों को दिखता है वो है सामने स्टॉल मे सजा मूढ़ी पकौड़ी चने चबेने की दुकान,आगे सड़क किनारे छोटी छोटी पान की गुमटियां,पुराना सा पेट्रोल
पंप,कुछ मकानों के खडहर आगे तातारपुर का सड़क किनारे लगा हुआ बाजार जहां सालों भर सेवइयां मिलती हैं,और शायद तरह तरह की टोपियां भी ।उसके आगे सड़क किनारे का इलाका लगभग वैसा ही है अलबत्ता ललकोठी जिसे दंगों के समय बत्तीस दांतों के बीच जीभ समान माना गया था दंगों के दौरान सुरक्षित बच जाने की वजह से खूब चर्चित हो गया ,पहले कच्चे घरों में लॉज चलता था अब दो मंजिला पक्के मकान में लॉज चलने लगा,पूरा मोहल्ला लौजमय हो गया। थोड़ा आगे परबत्ती का इलाका जिसे दंगों के दौरान सबसे अधिक नुकसान हुआ था जस का तस है।कुछ नई दुकानें खुली हैं पर कोई खास नहीं बदला की पहचान में न आए।
स्टेशन चौक से बाई तरफ तातारपुर का रास्ता है दाहिनी तरफ का रास्ता तिलकामांझी ओरहें यहां का कतरनी चुड़ा,चावल दुधिया मालदह को हमेशा याद करेंगे।साथ साथ याद रहेगा यहा का गंगा स्नान ,कम भीड़ वाले दिनों में हम गंगा स्नान करने जाया करते उसका अलग आनंद होता था।अपने विचित्र नाम के कारण' उल्टापुल ' याद रहेगा।नामी गिरामी आदर्श जलपान जाना बड़ी बात होथी लोग दामाद को आदर्श में नाश्ता करवाते थे फिर लोगों को बताते थे।देवेंद्र के समोसे और लवंग लता खाने का शौक था। लोगों को तब नूडल्स और चाउमिन का चस्का नही चढ़ा था,विद्यार्थी वर्ग समोसे जलेबी खा कर खुश थे,जलेबी वो भी परबत्ती के ताजी साव की लड़के बाजी ठोक के खाना शुरू करते तो खाते ही चले जाते,बाकी ग्राहकों को लौटाना पड़ता था। नाथ मगर की टिकरी यानी मधुसूदन दुकान की शुद्ध घी की बनी बालू शाही को याद किए बगैर भागलपुर की यादें अधुरी रह जाएगी।
शहर भागलपुर यहां मुझे बेहतरीन लोगों का साथ मिला।
हम भागलपुर के मूल वासिंदे नहीं हैं,आजीविका यहां ले आई,एक अनजान शहर में गृहस्थी की शुरुआत की हम हमेशा अपने इलाके के लोगों की तलाश में रहते ताकि कुछ अपनापन लगे, इस मामले में हम भाग्यशाली निकले की
हमे अविभावक तुल्य लोग राम कुमार बाबू और नरेश बाबू ,अनिरुद्ध ठाकुर जी मिले।इन्होंने हमे अपने परिवार जैसा स्नेह दिया ।मुझे याद आती है लालकोठी की, मुहल्ले में नीलू शीलू,रूबी,मीठू की ,हमारी गप्पबाजी साथ में बच्चे भी बड़े हो रहे थे, तुलु दीपा झुम्मी रिम्मी नेहा साईमस दीपा की तोतली बोली सबक़ो खूब भाती,दीपा खाने को बोलती हप् हप्।लोग पूछते तुमने हप् हप् किया और हंस पड़ते। ये दंगों के पहले की बात है, तभी दंगों का खूनी सैलाब आया जिसने हमें उनसे दूर कर दिया हम शहर के एक छोर तिलकामांझी आ गए। यहां भगत जी का किराये का मकान मिला जहां अंधेरे कमरे,चापानल की परेशानी थी,लेकिन डॉ एस.पी.सिंह जी से परिचय होना,हमारे लिए एक सुखद यादगार रिश्ता बन गया।स्कूल के बस स्टॉप से हुआ शुरूआती परिचय कब प्रगाढ़ स्नेह बंधन में बदल गया,मानो मैडम मेरी बड़ी बहन हों,उन्हें भागलपुर बाज़ार के चप्पे की जानकारी थी ,कहां होलसेल रेट में अच्छी चीजें मिलती है ये मैंने उन से सीखा।उन जैसी हंसमुख और सहृदय इंसान कम ह़ोते हैं चूंकि डॉ. साहब की पोस्टिंग दूसरी जगह थी,इसलिए बच्चों की पढ़ाई से लेकर परिचितों का इलाज करवाना सब काम बखुबी करतीं उनके बच्चों ,पिंकी गुंजन अर्पण आशू की उम्र
मेरे बच्चों के बराबर थी इसलिए हमारी नजदीकी ज्यादा रही।यहीं वैभव का जन्म हुआ और तुम्मैंहे
जबरदस्त बीमार पड़ी,इन दोनों मौके पर जिस तरह उन्होंने साथ
दिया ये भुलना नामुमकिन है।
हमारा मारवाड़ी कॉलेज हॉस्टल में आना
तिलकामांझी के घर की परेशानियों, इलाज में हुए खर्चों की वजह से हम कॉलेज के हॉस्टल में रहने को राजी हो गए,लेकिन इन्होंने मुझे वादा करवा लिया की मैं हॉस्टल से कोई मतलब नही रखूंगी।लड़कों का हॉस्टल सुपैरिटेंडेंट होना वानरी सेना का सरदार होने जैसा है कब किस बात पर बिदक जाए,कब हंगामा क
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