Thursday, May 17, 2012

nangi sachchai se samna

अभी मैं गावं में हूँ .हमारा गावं वैसा ही हैआम सा, न उतना पिछड़ा ,की सारे  घर फूस के हैं और नउतना आधुनिक की पक्के मकानों की वजह से गावं ,गावं नहीं शहर लगने लगे .वैसे सभी संपन्न घरों में टी.वी . का प्रवेश हो चूका है .तो स्वभाविक है टी.वी अपने साथ इक नइ संस्कृति भी लाता है .लोग विचारों से बाद में बदलते हैं ,लेकिन  रहन सहन  , पहनावा जल्दी बदल  जाता है .खैर ......जो भी हो .
                                             मेरा  ध्यान जिस बात  ने खींचा ,वो ये थी की गावं के मकान में मोटर और पानी की टंकी लगाने के लिए जो मिस्त्री हमारे घर   आया वो मुसलमान था .हम ठहरेब्राह्मण .शहरों में हम जैसे भी रह लेते हों .लेकिन  गावं में माताजी की वजह से अभी भी छुआ छुट  उंच -नीच की भावना बनी हुई है .गावं में हमारा ज्यादा समय हाथ धोने में ही बीतता  है .मन से सहमत न रहते हुए भी ,हम उनकी खातिर वैसा करते हैं .
                             वो मिस्त्री ,सुबह आठ बजे ही आ जाता था .जाहिर है उसका खाना -पानी ,चाय नाश्ता ,सब हमारे ही घर चलता था .घर में उसके लिए  अलग बर्तनों की  व्यवस्था थी .जो में उससे छुपाना चाहती थी .
क्यों की शहरों में जो हमारे मुस्लिम  दोस्त है उनके साथ तो हम ऐसा नहीं करते .  बड़ी गर्मी थी जब मोटर लगाने के लिए पाईप खोला जाने लगा तो उसने  खुद पूछा , क्या आपके यहाँ कोई प्लास्टिक मग और ग्लास नहीं है ताकि में अपने लिए उसमे पानी भर के रख सकूँ ?मुझे सुन के   बड़ा अजीब लगा ,मैंने महसूस किया ,इन्हें पता है  की  हम  लोग इनसे परहेज करते हैं अपने बर्तनों में इन्हें खाना नहीं परोसते हैं .क्यों की खाना खा कर वो अपनी थाली धो कर किनारे रख देता था   सभ्य समाज की ये नंगी सच्चाई है .जिसे एक वर्ग निर्विकार रूप से स्वीकार करके चल रहा है .तभी तो यह व्यवस्था अभी तक चल रही है 
   

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