आज कल की युवा लड़कियों में नया चलन चल पड़ा है एकाकी जीवन जीने का. खुद कमा रही हैं ,अपने ढंग से रह रही हैं ,बिलकुल स्वछन्द जीवन जी रही हैं. शायद बड़े शहरों की सुविघा - सुरक्षा एवं एक ऐसी मानसिकता (जिसमे किसी को किसी से कोई मतलब नहीं रहता है) बढ़ावा दे रही हैं .वर्ना छोटे शहरों की मानसिकता तो अभी भी खुद से ज्यादा अकेली लड़कियों के बारे में जानने की रही है,यानि बिना वजह दूसरों के जीवन में ताँक झांक .
शादी -विवाह से बेशक स्वछंदता में कमी आती है.लेकिन ऐसी भी क्या स्वछंदता. अपनी घर-गृहस्ती बसाने का जो सुख है, उसका इन्हें अनुभव नहीं है तभी ऐसा सोच रही हैं.
फिर एकाकी जीवन शुरू में तो ठीक लगता है लेकिन हमने तो प्रायः ऐसी औरतों का बुढ़ापा बड़ा दुःख दाई देखा है .असल में होता यों है कि,अकेली जिंदगी के खर्चे कम होते हैं इसलिए बचत अधिक होती है. इसलिए प्रायः सगे सम्बन्धी पैसे के लालच में इन से नजदीकी बनाना शुरू कर देते हैं जो की इन्हें नागवार होता है. अंततः बेदिल नौकर -चाकरों के भरोसे ही इन का जीवन कटता है
मुझे तो लगता है अपने आत्म-निर्भर होने के अहम् ने इन्होंने अपने जीवन साथी से कुछ ज्यादा ही उम्मीद करनी शुरू कर दी है, सब कुछ पा लेने का सपने देखना कुछ बुरा तो नहीं है लेकिन उसकी उम्मीद में जीवन के उन वर्षो बिताना जो की शारीरिक नजरिये से भी जरुरी है ये इनकी लापरवाही है.
अगर समय से सुब कुछ मिल जाये तो अति उत्तम लेकिन हर इन्सान में कुछ कमियाँ खूबियाँ होती ही हैं - आप ऑफिस में साथ मिल कर काम करते है, अडोस पड़ोस के साथ निभा के चलते हैं, अपने सगे सम्बन्धियों के स्वभाव के हिसाब से मिलते हैं, फिर अगर जीवन साथी के साथ क्यों नहीं?
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