Sunday, January 10, 2016

आखिर मौत जीत गयी

माँ को हम बड़े शौक से भागलपुर लाए थे।वो जल्दी कहीं जाना नही चाहती थी।सो मोतियाबिंद के ओपरेसन का बहाना बना ।यहां आ कर वो काफी प्रसन्न दिखीं ।हम निश्चिंत हुए। अचानक उस दिन शाम को उन्हें बेचैनी महसूश हुई ,उन्हें सांस लेने मे दिक्कत हो रही थी। हम आनन फानन उन्हें ले कर डॉक्टर के पास भागे।

उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती किया ।एक भयंकर अकुलाहट थी उनके मन में।  वो नाक की बजाय मुँह से सांस ले रही थी, घरघराहट के साथ, मानो अंदर एक संघर्ष चल रहा था। हम ताबड़तोड़ अंतहीन दवाएँ  चला रहे थे - चार-पांच तरह की गोलियां, ऑक्सीजन, सेलाइन।  

माँ, माँ होती है। जैसे ही उनकी तबीयत बिगड़ी उस समय भी अपने बेटे की चिंता थी  जिसे पढ़ने लिखने के अलावा कुछ नहीं आता, वह इस विकट परिस्थिति को कैसे झेलेगा?उस कष्ट मे भी चितित थी ,जब तक  उनको हमने ये नहीं बताया कि हम उन्हें हॉस्पिटल कैसे ले कर जायेंगे। 
डॉक्टर के पास ले जाने का इंतज़ाम कर लिया है, ये सुनने के बाद उन्होंने बजरंग-बली, राम-राम का निरंतर जाप करना शुरू कर दिया था।  शायद उन्हें अपने जाने का आभास हो गया था। पच्चासी साल के जीवन में उन्होंने कईयों को मरते देखा होगा। पर हम इन विकट परिस्तिथियों से अनजान थे, अंदाजा नहीं था कि  मौत इतने करीब है। हम हर कीमत पर माँ को जिलाये रखना चाहते थे।  

दवाईयों पर हमें बड़ा भरोसा था। इसलिए जैसे ही उनकी नाक में ऑक्सीजन की पाइप लगी, हम निश्चिन्त हो गए।  पर उनकी बेचैनी बढ़ती ही गयी।  उस बीच ना जाने कहाँ से उनमें ऐसी ताकत आ गयी कि सारे उपकरणों को ज़ोर से नोच डाला, और झटके से अपने आप को उनके मायाजाल से मुक्त कर लिया।  

तब तक बेटे ने फुर्ती से माँ को संभाला, अपने सीने से लगाकर कहा, "माँ, कहाँ जाना चाहती हो?" माँ ने दरवाज़े की ओर इशारा किया - क्या पता वो किसे देख पा रही थी. फिर अपने बेटे का चेहरा एक बार देखा। इसके बाद उनका जबड़ा बंद हो गया, और बेचैनी धीरे-धीरे शांत होने लगी। 

हमे अनुभव नहीं था, हमने सोचा माँ शायद दवाओं के असर से सो रही हैं। लेकिन कहीं  न कहीं एक डर बना हुआ था।  तुरंत डॉक्टर साहब आये, उन्होंने आले से जाँच की, और सिर हिला दिया। हमारी माँ चल बसी, हमें अनाथ छोड़कर।   वो एक पुण्यात्मा थीं। अपने पुत्र की गोद मे,भगवान का नाम लेते हुए ,प्राण त्यागना ।इतनी अच्छी मृत्यु  भगयवानो को मिलती है।

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