Thursday, January 9, 2025

ऐ शहर भागलपुर,तुम्हें भुला न पाऐंगे

 ऐ शहर भागलपुर,तुम याद बहुत आओगे।

पूरे चालीस साल यहां रहने के बाद, इस सुंदर सी जगह,जिसे सिल्क सिटी के नाम से भी पुकारा जाता है,को हम छोड़ कर जा रहे हैं। कहना कितना  आसान है सबकुछ छोड़ छाड़ के जाना उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है,वो लोग जिनके साथ इतने दिनो तक काम किया,हर सुख दुख में हमारे साथ रहे,हर पर्व त्योहार उनलोगो के साथ मनाया करते थे,अब तो हम इस कदर हिलमिल गए हैं  की आपस में बिना कुछ कहे सुने मन की बात समझने लगे हैं, ऐसे रिश्तों को छोड़ कर जाना होगा सोच कर हमारा दिल बैठा जाता था। 

हमें ये शहर छोड़ना है ये तय था क्योंकि हमारे बच्चे साथ नही रहते,और हवाई सुविधा न रहने से वे चाह कर भी नहीं आ पाते हैं।

अब हमने ग्रेटर नोएडा में रहने का फैसला लिया हैं

ग्रेटर नोएडा के अपने अपार्टमेंट की सोसाइटी के कैंपस में हम सामने की ओर देखते हुए, टहल रहे थे की पीछे से आवाज आई ,किसी ने कहा, प्रणाम सर ! वही चिर परिचित लहजा, हम खुशी से चौंक गए, मुड़ कर देखा, वो हमारे लिए अपरिचित थे ,बिहार से थे और इनके बारे में जानते थे।वैसे उनको देखकर हम खुश हो गए। 

हम अपना रिटायर्ड जीवन यहां बिताने आए थे ।हमने ग्रेटर नोएडा को इसलिए चु koना क्योंकि ये राजधानी के करीब होते हुए भी थोड़ा सस्ता था ,मेरा इलाज दिल्ली में चल रहा था।मौके बेमौके वे दो घंटे में  हम तक पहुंच सकते थे।यहां सब चीज की सुविधा थी।पास में दुकानें थीं, मॉल था ,मैट्रो पास में था। वे इन सब सुविधा को समझ कर संतुष्ट थे की उन्होंने हमारे लिए सबकुछ कर दिया है पर इतना आसान नहीं होता ,एक झटके से सब कुछ छोड़ छाड़कर कहीं चल देना,तिनका तिनका चुन कर जोड़ा गया ये घोंसला,जान से प्यारे रिश्ते,कोई कैसे जी पाएगा भला।हम ठहरे छोटी जगह के साधारण इंसान,न कोई तड़क भड़क न दिखावा,जो अंदर है वो ही बाहर भी है सबको अपने समान समझने वाले,सब में अपनापन  ढूंढने वाले ।

अब रहना पड़ रहा है बड़े शहर में।

बड़े शहरों का अपार्टमेंट कल्चर ,सबकी अपनी बंद दुनिया, कोई अनायास उसमें झांक नहीं पाता, महीनों किसी फ्लैट में रहने के बाद बगल वाले फ्लैट में कौन रहता है लोगों को पता  नहीं होता ।अपने यहां लोग बारामदे में बैठकर ,खांस खांस कर अपना गला साफ कर रहे होते है, उधर गली के लोग खैरियत पूछने आ जाते हैं। रही अपार्टमेंट कल्चर की बात ,घर में लाश  पड़े पड़े सड़ जाती है ,और तब पड़ोसी को पुलिस बताती है।

जब हमारे सामान ले जाने की बारी आई, बैठ कर सोचनेलगा इस जंजाल को कैसे समेंटूं ?बच्चों ने कहा बेकार की चीज़ें मत ले जाना,देखा तो सबकुछ काम का था,हैंडल टूटा कप भी नाप के सामान निकालने के काम में लगा था। प्लास्टिक के पुराने डिब्बे जो मैने बड़े जतन से जमा किया था कभी बिना जरूरत सिर्फ सुंदर डिब्बे की खातिर सामान खरीदने लेती , कभी डिब्बे पाने के लिए ,तीन किलो सर्फ घर ले आती।मुझे अपने सभी डब्बे  प्यारे थे,डिब्बों को फेंकना मुझे मंजूर नही था ।मगर  अंत तक ट्रक मे डिब्बों की गुंजाइश नही हुई आखिर काफी मन मसोस कर उन डिब्बों को काम वाली को देना पड़ा। 

मुझे जान से प्यारी  अपनी क्रोकरी थी पर  ले जाना मुश्किल  था ,उनके टूट जाने का डर था 

इनका कहना था ,ये कभी काम नहीं आती,,अब मंहगी क्रॉकरी कोई रोज रोज  क्यों निकाले , आजकल कोई गेस्ट नहीं आते (मेरे यहां ही नहीं, किसी के घर नहीं आते हैं ) इसमें उनकी क्या गलती और मुझे ये अच्छी तरह पता है , मैं इसे जिन्हे दूंगी वो भी इन्हे रखे रहेंगी।कुछ चीजें लोग सिर्फ सहेजने के लिए  खरीदते हैं।

फर्नीचर के बारे में ये जाना,

पहले फर्नीचर पुश्तैनी हुआ करते थे,अब लकड़ी के सामान में मजबुती नही डिजा़ईन और अपनी सुविधा देख कर  ,कपड़ों की तरह बदले जाते है।पहले हम सामान के साथ एडजस्ट करते थे अब एडजेस्टेबल  फर्नीचर मिलता है ,एक टूटे हत्थे वाली कुर्सी जिस कुर्सी पर बैठ घर मुझे बड़ा सुकुन मिलता था उसे किसी को दे दिया ।फिर एक गौर करने वाली चीज और है,

  अपनी कमाई से खरीदी चीज से मोह नहीं जाता,ये चीज हमने तब खरीदी थीं जब हमारी  तनख्वाह बहुत कम थी आमदनी कम और जरूरतें ज्यादा होती थीं कुछ चीजें पैसे जोड़ कर खरीदा,कुछ दुकानदार  से किश्तों में खरीदा, हर सामान के साथ उसका इतिहास जुड़ा था साथ ।वो बड़े उदासी वाले दिन थे,लगता था कोई अपना जुदा हो रहा हो।


ऐ शहर भागलपुर,तुमने मुझे डराया था बहुत।



मुझे अब भी याद है 31 जुलाई 1984 को मैंने पहली बार भागलपुर में कदम रखा।इनकी बहाली भागलपुर यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के रूप में हो गई थी,उन दिनों पूरे देश में ये शहर अपने अंखफोड़वा कांड के लिए बदनाम हो चुका था।ऐसे मे भागलपुर जाना ? पर नौकरी थी जाना तो था ही।

हमारे आने से पहले इन्होंने रहने का इंतजाम कर लिया था।लाला कोठी में  किराए के दी छोटे  कमरों से हमने गृहस्थी की शुरुआत की।घर में हम कुल साढ़े तीन लोग थे, मैं, मेरे पति,देवर हीरा और हमारी पहली संतान तूलिका। 

शाम हो चुकी थी जब लाल कोठी के ऊबड़ खाबड़ रास्ते से चल कर हमारा रिक्शा इंजीनियर साहब के मकान से जा  लगा।  कोलफील्ड की कॉलोनी से निकल कर मोहल्ले में रहने की शुरुआत थी,बड़ा अजीब लग रहा था।दुर्योग से जिस रात हम लोग वहां पहुंचे , हमारी गली में तीन बम फूटे और कोई बदमाश गोलियां बरसता भागा,  मैं दहशत में आ गई, डरकर मैने इनकी ओर देखा इन्होंने कहा तुम चिंता मत करो ये इनका आपसी मामला है आमलोगों को इससे कोई मतलब नहीं है,आगे इनकी बात सच निकली। 

नई जगह में रहना इतना आसान नहीं होता अगर हमें पड़ोस में राम कुमार बाबू के परिवार का साथ नहीं मिलता। हम एक ही इलाके के रहने वाले थे ,उनकी बेटियों से मेरी खूब पटने लगी थी,पूरा परिवार तूलिका को सम्हालने लगा था।मेरा मन लग गया।

 हम भागलपुर के वाशिंदे नहीं थे,नौकरी करने आए थे, हमें एक दिन जाना है ये हमने शुरू में ही ठान लिया था। ये दोस्त लोग थे जिनके बल पर हम यहां इतने सालों तक बड़े प्रेम से रहे।

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शहर भागलपुर जब तुझ पर खून के छींटे पड़ी थीं,मैं वहीं थी ।

भागलपुर में दंगा होना मेरा सबसे दर्दनाक अनुभव रहा ।धर्म की आड़ में कारोबार को बिगाड़ने या बढ़ाने की साजिश का परिणाम थे ये दंगे।भागलपुर शांतिप्रिय शहर था ओर है।आम मिलजुल के रहने वाले हैं लेकिन आपसी रंजिश को इतना बढ़ा दिया कि दंगा गांव गांव में फैलग देखते ही देखते मेरी नज़रों के सामने पूरी बस्ती में आग लगा दी गई।सारी रात औरतों के,बच्चों के रोने की आवाजें आती रही। दहशत से हमारी नींद उड़ गई  थी,दरअसल जुलूस के आक्रमक होने की आशंका की वजह से हमे अपने घर में रहना सही नहीं लगा,हमारा मुहल्ले लाल कोठी  की स्थिति बत्तीस दांतों के बीच जीभ जैसी थी, चारों तरफ से मुस्लिम बस्तियां थीं। चूंकि दंगे होना आम बात थी इसलिए  देवर जी  की सलाह पर हम कुछ देर के लिए लाल बाग चले गए हमारा उनके यहां से खूब आना जाना था बच्चे भी वहां जा कर खुश हो जाते, कुछ देर में ये बड़की बिटिया को स्कूल से लेकर वहीं  गए ,उधर हमारे मुहल्ले लालकोठी के उल्टे तरफ तातारपुर में दंगे शुरू हो चुके थे।स्थिति कुछ इतनी बदतर हो गई हम वापस अपने घर नहीं जा पाए,बिहार की डंडा पुलिस देंगे को रोकने में नाकाम रही थी,जब तक केंद्रीय पुलिस आती दस दिन बीत गए,ये दस दिन जंगल राज था।जिसकी जहां चली मनमानी होती रही,मानवता टूक टूक रोई होगी। हम पढ़े लिखे लोग, किंकर्तव्य  विमुढ़ बन गए थे ।गंगा के किनारे रहने वाले गंगोट  हमारे रहनुमा बन बैठे थे।नरेश बाबू का परिवार और हमलोग कुल मिला कर घर में दस लोग हो गए थे इस अनिश्चिता के समय में क्या पता कब  कहां से आगे की व्यवस्था होगी ,कहना मुश्किल था लेकिन उन  लोगों ने हमे बड़े प्रेम रखा,घर में जो समान था उसी को मिलजुल कर खाते। पूरे दस दिन वहां रहने के बाद हम भागलपुर से निकल कर अपने गांव का पहुंचे,तब फोन की इतनी सुविधा नहीं थी ,बाकियों ने क्या किया कैसे उन भयावह दिनों को काटे,पूरे तीन महीने तक कोई खोज खबर नही मिली।जब तक दंगे चले हम भागलपुर नहीं लौटे अंतत: लाल कोठी छोड़ने की शर्त पर हमें वापस आने की मंजूरी दी गई।इस वार हमने तिलका मांझी में घर किराए पर लिया।इस दौरान परिवार क्या होता है,खूब समझ में आया,परिवार में  बड़ों का रुतबा देखा, मन में उन लोगों के प्रति आदर बढ़ गया।एशहर भागलपुर हमने अपने सबसे अच्छे

दिन गुजारे हैं यहां।


भागलपुर में  शैक्षणिक माहौल  होने की वजह से मैंने अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने की सोची,इन्हे पता करने को कहा,वहीं रमेश सिंह जी मिले,संयोग से दोनों ने उसी पैनल से ज्वाइन किया था उनकी पत्नी ने भी अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने की सोची,  और सुखद हैरानी की बात ये हुई की वो भी हिंदी वाली निकली।ये भागलपुर में सहेलियां बनाने की ये शुरुआत थी,इन के मित्र कृष्ण मुरारी जी की पत्नी निभा जी से भी परिचय हुआ,फिर तो हमारी चल निकली, हमलोगों की आपस खूब पटती थी।और मजे की बात ये की हमारा परिवार खुश होता जब हम सब साथ होते,उन दिनों की छोटी छोटी खुशियां हमारे जीवन को यादगार बनाती हैं।

एकदिन निभा ने ही,ध्यान दिलाया की

हम  तीनों का नाम नी से शुरू होता था,निभा नीता,निर्मला ।हम हैरान हो गए।उधर कृष्ण चंद्र और कृष्ण मुरारी!दोनों मित्र के मिलते जुलते नाम पर हम खूब चुट


भागलपुर  में घूमने फिरने की जगहें  बहुत कम हैं और हम तीनों को घूमने फिरने का चस्का था होटल जाना या परिवार के साथ फिल्म देखने जाना, इनकी नौकरी की गरिमा के लिए सही नहीं था  हमारे पास गाड़ी नहीं थी,हमे उसी स्कूटर के भरोसे  मौज

मस्ती करनी थी। लेकिन हम चूकते 

नहीं थे कभी अपने पलॉट  पर  या सैंडिस कंपांउंड में एकबार तो हमने बॉटनी डिपार्टमेंट के कैंपस में भी पिकनिक किया था बड़ी मस्ती भरे दिन थे। 

उन्ही दिनों असफल अभ्यार्थियों ने

  कोर्ट में इनकी बहाली को अवैध बताने की अपील कर दी। लगी लगाई नौकरी पर आई इस आफत को पैनल के लोगों ने एकजुट होकर जवाब देने की ठानी सबने  पैसे जमा करके वकील नियुक्त किया जो इन्हें कानूनी रूप से सही ठहराए।

हम तीनों की पहली बेटी थी बड़े शौक से हमने उन्हें सबसे अच्छे स्कूल में डाला तुलु का एडमिशन सेंट जोसेफ में करवाया क्यों की वो हमारे घर से नजदीक  था।

कहने को हम ग्रेड वन की नौकरी करने वाले वर्ग के थे लेकिन तनख्वाह बहुत ही कम थी वो भी कभी समय पर नहीं मिलती थी,अपने रहन सहन के स्तर को मेनटेन रखने टीके लिए ,न चाहते हुए भी प्राइवेट ट्यूशन करने का फैसला किया।अंगरेजी स्कूल के खर्चे,घर का किराया,अपनी हैसियत को बरकरार रखने के लिए हम बड़े हिफाजत से रहते ताकी, गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रुप से चलती रहे।

शहर भागलपुर तुमने हमें बहुत कुछ दिया,उम्मीद से दुगना दिया।


 यहां रहने के दौरान परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी की हम लगभग पूरे शहर में रह कर देख लिया।

भागलपुर को अभी भी कस्बाई शहर कहा जा सकता है।हरी सब्जी,ताजी हवा,बातचीत में स्थानीय बोली की अधिकता ,शांत जीवन ,अपनी एक अलग पहचान  के साथ जीना।बड़े शहरों में आदमी एक डिजिट मात्र कहलाता है।धड़ाधड़ अपार्टमेंट बन रहे हैं,फिर भी निजी मकानों की अधिकता है ,लोग एक दूसरे को नाम से पहचानते  हैं।

लेकिन भागलपुर  अभी  भी वैसा ही है,जैसा आप इसे छोड़ कर गए होंगे,लगभग पचास साल पहले।

रेलवे स्टेशन भले ही आधुनिक और साफ सुथरा रहता है।पर जब आप स्टेशन के एक नंबर गेट से बाहर निकलते ही जो नजारा लोगों को दिखता है वो है सामने स्टॉल मे सजा मूढ़ी पकौड़ी चने चबेने की दुकान,आगे सड़क किनारे छोटी छोटी पान की गुमटियां,पुराना सा पेट्रोल 

पंप,कुछ मकानों के खडहर आगे तातारपुर का सड़क किनारे लगा हुआ बाजार जहां सालों भर सेवइयां मिलती हैं,और शायद  तरह तरह की टोपियां  भी ।उसके आगे सड़क किनारे का इलाका लगभग वैसा ही है अलबत्ता ललकोठी जिसे दंगों के समय बत्तीस दांतों के बीच जीभ  समान माना गया था दंगों के दौरान सुरक्षित बच जाने की वजह से खूब चर्चित हो गया ,पहले कच्चे घरों में लॉज चलता था अब दो मंजिला पक्के मकान में लॉज चलने लगा,पूरा मोहल्ला लौजमय हो गया। थोड़ा आगे परबत्ती का इलाका जिसे दंगों के दौरान सबसे अधिक नुकसान हुआ था जस का तस है।कुछ नई दुकानें खुली हैं पर कोई खास नहीं बदला की पहचान में न आए।

स्टेशन चौक से बाई तरफ तातारपुर का रास्ता है    दाहिनी तरफ का रास्ता तिलकामांझी ओरहें यहां का कतरनी चुड़ा,चावल दुधिया मालदह को हमेशा याद करेंगे‌।साथ साथ याद रहेगा यहा का गंगा स्नान ,कम भीड़ वाले दिनों में हम गंगा स्नान करने जाया करते उसका अलग आनंद होता था।अपने विचित्र नाम के कारण' उल्टापुल ' याद रहेगा।नामी गिरामी आदर्श जलपान जाना बड़ी बात होथी लोग दामाद को आदर्श में नाश्ता करवाते थे फिर लोगों को बताते थे।देवेंद्र के समोसे और लवंग लता खाने का शौक था। लोगों को तब नूडल्स और चाउमिन का चस्का नही चढ़ा था,विद्यार्थी वर्ग समोसे जलेबी खा कर खुश थे,जलेबी वो भी परबत्ती के ताजी साव की लड़के बाजी ठोक के खाना शुरू करते तो खाते ही चले जाते,बाकी ग्राहकों को लौटाना पड़ता था। नाथ मगर की टिकरी यानी मधुसूदन दुकान की शुद्ध घी की बनी बालू शाही को याद किए बगैर भागलपुर की यादें अधुरी रह जाएगी।

शहर भागलपुर यहां मुझे बेहतरीन लोगों का साथ मिला।

हम भागलपुर के मूल वासिंदे नहीं हैं,आजीविका यहां ले आई,एक अनजान शहर में  गृहस्थी की शुरुआत की हम हमेशा अपने इलाके के लोगों की तलाश में रहते ताकि कुछ अपनापन लगे, इस मामले में हम भाग्यशाली निकले की 

 हमे अविभावक तुल्य लोग राम कुमार बाबू और नरेश बाबू ,अनिरुद्ध ठाकुर जी मिले।इन्होंने हमे अपने परिवार जैसा स्नेह दिया  ।मुझे याद आती है लालकोठी की, मुहल्ले में नीलू शीलू,रूबी,मीठू की ,हमारी गप्पबाजी  साथ में बच्चे भी बड़े हो रहे थे, तुलु दीपा  झुम्मी   रिम्मी   नेहा साईमस दीपा की तोतली बोली सबक़ो खूब भाती,दीपा खाने को बोलती हप् हप्।लोग पूछते तुमने हप् हप् किया और हंस पड़ते। ये दंगों के पहले की बात है, तभी दंगों का खूनी सैलाब आया जिसने  हमें उनसे दूर कर दिया हम शहर के एक छोर तिलकामांझी आ गए। यहां भगत जी का किराये का मकान मिला जहां अंधेरे कमरे,चापानल की परेशानी थी,लेकिन डॉ एस.पी.सिंह जी से परिचय होना,हमारे लिए एक सुखद यादगार रिश्ता बन गया।स्कूल के बस स्टॉप से हुआ शुरूआती परिचय कब प्रगाढ़ स्नेह बंधन में बदल गया,मानो मैडम मेरी बड़ी बहन हों,उन्हें भागलपुर बाज़ार के चप्पे की जानकारी थी ,कहां होलसेल रेट में अच्छी चीजें मिलती है ये मैंने उन से सीखा।उन जैसी हंसमुख और सहृदय इंसान कम ह़ोते हैं  चूंकि डॉ. साहब की पोस्टिंग दूसरी जगह थी,इसलिए बच्चों की पढ़ाई से लेकर परिचितों का इलाज करवाना सब काम बखुबी करतीं उनके बच्चों ,पिंकी गुंजन  अर्पण आशू की उम्र 

मेरे बच्चों के बराबर थी इसलिए  हमारी नजदीकी ज्यादा रही।यहीं वैभव का जन्म हुआ और मैं

जबरदस्त बीमार पड़ी,इन दोनों मौके पर जिस तरह  उन्होंने साथ 

दिया ये भुलना नामुमकिन है।

हमारा मारवाड़ी कॉलेज हॉस्टल में आना


तिलकामांझी  के घर की परेशानियों, इलाज में हुए खर्चों की वजह से हम कॉलेज के हॉस्टल में रहने को राजी हो गए,लेकिन इन्होंने मुझे वादा करवा लिया की मैं हॉस्टल से कोई मतलब नही रखूंगी।लड़कों का हॉस्टल सुपैरिटेंडेंट होना वानरी सेना का सरदार होने जैसा है कब किस बात पर बिदक जाए,कब हंगामा कर दें। मैने भी अपना वादा खूब निभाया,असल में बच्चों में उलझे रहने की वजह से हमें इधर उधर देखने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी हम अपने आप में मगन रहते थे। कभी kms लोग आ जाते हां उन्हीं दिनों हमारे एक काका भी बन विभाग में कार्यरत थे बदली हो कर भागलपुर आ गए,इसलिए हमारा अधिक समय चाची के साथ बीतता था वो चूंकि हम उम्र थी इसलिए हमारीखूब पटतो थी ।कैसे सात साल निकल गए पता ही नहीचला अब हमें काफी दिन हॉस्टल में रहते हुए हो गए थे हमने कॉलोनी में जाने का मन बनाया। हॉस्टल में रहते हुए हमने वहां की सरस्वती पूजामें खूब आनंद मनाते थे बहुत धूम धाम से मनाया जाता था।पूरा एक सप्ताह तैयारी किया करते थे।चंदा उघान से लेकर मुर्ती विसर्जन तक,कोई चैन से नही रहता था सबके काम बंटे थे,सबकी शिकायतें, आपसी मन मुटाव सब बाते शाम को सुफरिटेंडेंट को सूनाई जाती,विद्यार्थियों पर इनका जबरदस्त प्रभाव था आखिरी फैसला इनका होता लोग चुप चाप मान भी लेते थे,जो सर ने बोला वही।दो तीन दिन सामूहिक भोज होता था उस दिन वैभव खूब खुश होता  था क्योंकि मेस की आलू की भुजिया में उसकी जान बसती थी पूरे बारह तेरह रोटियां खा जाता था लड़के खूब हंसते ,मुझे भी उस दिन खाना नहीं बनाना पड़ता था। हॉस्टल के मेस का खाना हम भी बड़े चाव से खाया करते।वो रविवार की पांडे जी की बड़ियां हमे नहीं भूलेंगी।

हॉस्टल के बाद हमे यूनिवर्सिटी द्वारा प्रोफेसर कॉलोनी में एक क्वाटर अलॉट किया गया।हम 24 परगना रहने आ गए वहां हमे बड़े अनोखे अनुभव हुए,

प्रोफ़ेसर साहब बीमार पड़ गए ! एक तो प्रोफ़ेसर -टीचर की जात जल्दी बीमार ही नही पड़ती हैं क्योंकि दुनिया के तमाम पथ्य- परहेज उन्हें पता रहता है और वे उन्हें आजमाते भी रहते हैं .और खुदा न खास्ता अगर किसी बीमारी ने उन्हें पटक भी दिया तो क्या मजाल जो झट से किसी डाक्टर को दिखला लें ! पहले तो इधर उधर के नुस्खे से ठीक होने की कोशिश करेंगे ,फिर नही तो किसी दवा दुकान दार से पूछ क़र दवा खा क़र ठीक होने की प्रतिक्ष्चा करेंगे . लेकिन इस वार तो प्रोफ़ेसर साहब बीमारी के फेरे में पड़ ही गए .असल में उन्हें कुछ दिनों के लिए ससुराल जाना पड़ा ,वहां का स्वागत -सत्कार ,यानि मसालेदार भोजन ,इन्हें ले डूबा .घर में तो जनाब ना खुद इस तरह का भोजन करते ना करने देते ..कुछ दिनों तक जब बुखार नही उतरा तो तय हुआ की अब किसी डाक्टर तो दिखा ही लिया जाय !क्यों की अब इसके बिना कोई उपाय भी नही था .काफी पूछ -पाछ के एक अनुभवी डाक्टर के पास गए .उन्होंने इन्हें टाईफाइड बतलाया .प्रोफ़ेसर साहब तो ठहरे डाक्टर के गुरु उन्होंने पूछा ,आपको कैसे पता मुझे यही बीमारी है ?बुखार तो कई तरह के होते हैं .डाक्टर को भी शायद पता चल गया था की उसका किस से पाला पड़ा है ,उसने कहा चूँकि आपके सभी लक्छ्न यही बता रहे हैं फिर मै कुछ टेस्ट भी लिख दे रहा हूँ आपको तसल्ली हो जाएगी .वाकई टेस्ट में वही निकला . शाम को शुभ चिन्तक प्रोफ़ेसर सब आये हाल चाल जानने के लिए .फिर किस डाक्टर को दिखाया ,उसने क्या कहा ,कौन -कौन सी दवा दी किस दवा का क्या डोज है इत्यादि पर मंथन हुआ . खैर …इस तरह एक हफ्ता निकल गया लेकिन बुखार जाने का नाम ही ना ले .फिर सब सुभ -चिन्तक प्रोफेसरों ने निर्णय लिया की जरुर दवाई का डोज कम दिया गया है या दवा गलत है . (अरे ,अगर यही बात थी तो आप सभी खुद ही डाक्टर नही बन गये होते. डाक्टर नही बन पाए तभी तो प्रोफ़ेसर बन गए ! )….आखिर डाक्टर किस लिए है .फिर से डाक्टर के पास गए ,लेकिन उसने आत्म विस्वास के साथ कहा दवा भी सही है और डोज भी .,बुखार चूँकि मियादी है इसलिए वो तो अपना समय ले क़र ही जायेगा .और ये भी कहा की उनका खुद का भाई चालीस दिनों तक यही बीमारी भोग चुका है .लेकिन प्रोफ़ेसर साहब इसी उधेड़ बुन में हैं की ये सब मेरे पढाये हुए मुझे ही चराने चले हैं ! अब वे दिल्ली का रुख करने की सोच रहे हैं ,क्यों की दिल्ली के डाक्टरों को उन्होंने नही पढ़ाया है 
प्रोफेसर कॉलोनी अब बेहद गंदा हो चला था,क्योंकि हमारी कॉलोनी की नाली का निकास पीछे की बस्ती कंपनी बाग वालों ने बंद कर दिया था,उस जमे हुए गंदे पानी से भयंकर दुर्गंध आने लगा था हमने नगरनिगम,में बहुत आवेदन दिया पर कोई फायदा नहीं हुआ तंग आकर हमने कॉलोनी छोड़ें दी,अब हम अपार्टमेंट ने आ गए। ।
ऐ शहर भागलपुर तेरे अनोखे अपार्टमेंट कल्चर की बलिहारी।
भागलपुर के अपार्टमेंट में रहना एक विचित्र अनुभव है अगर अपार्टमेंट में लिफ्ट हो तो नीचे के तीन फ्लोर वाले लिफ्ट का पैसा नही देते ,वैसे ही ऊपर के लोग नीचे की सफाई का पैसे नही देते,अपार्टमेंट का गार्ड अक्सर नदारत रहता है वो बिल्डर या किसी रईस फ्लैट वाले का हुकुम बजाता होता है। हमारा अपार्टमेंट शहर के बीचों बीच था आसपास सब चीजों की सुविधा थी।
माँ को हम बड़े शौक से भागलपुर लाए थे।वो जल्दी कहीं जाना नही चाहती थी।सो मोतियाबिंद के ओपरेसन का बहाना बना ।यहां आ कर वो काफी प्रसन्न दिखीं ।हम निश्चिंत हुए। अचानक उस दिन शाम को उन्हें बेचैनी महसूश हुई ,उन्हें सांस लेने मे दिक्कत हो रही थी। हम आनन फानन उन्हें ले कर डॉक्टर के पास भागे।

उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती किया ।एक भयंकर अकुलाहट थी उनके मन में।  वो नाक की बजाय मुँह से सांस ले रही थी, घरघराहट के साथ, मानो अंदर एक संघर्ष चल रहा था। हम ताबड़तोड़ अंतहीन दवाएँ  चला रहे थे - चार-पांच तरह की गोलियां, ऑक्सीजन, सेलाइन।  

माँ, माँ होती है। जैसे ही उनकी तबीयत बिगड़ी उस समय भी अपने बेटे की चिंता थी  जिसे पढ़ने लिखने के अलावा कुछ नहीं आता, वह इस विकट परिस्थिति को कैसे झेलेगा?उस कष्ट मे भी चितित थी ,जब तक  उनको हमने ये नहीं बताया कि हम उन्हें हॉस्पिटल कैसे ले कर जायेंगे। 
डॉक्टर के पास ले जाने का इंतज़ाम कर लिया है, ये सुनने के बाद उन्होंने बजरंग-बली, राम-राम का निरंतर जाप करना शुरू कर दिया था।  शायद उन्हें अपने जाने का आभास हो गया था। पच्चासी साल के जीवन में उन्होंने कईयों को मरते देखा होगा। पर हम इन विकट परिस्तिथियों से अनजान थे, अंदाजा नहीं था कि  मौत इतने करीब है। हम हर कीमत पर माँ को जिलाये रखना चाहते थे।  

दवाईयों पर हमें बड़ा भरोसा था। इसलिए जैसे ही उनकी नाक में ऑक्सीजन की पाइप लगी, हम निश्चिन्त हो गए।  पर उनकी बेचैनी बढ़ती ही गयी।  उस बीच ना जाने कहाँ से उनमें ऐसी ताकत आ गयी कि सारे उपकरणों को ज़ोर से नोच डाला, और झटके से अपने आप को उनके मायाजाल से मुक्त कर लिया।  

तब तक बेटे ने फुर्ती से माँ को संभाला, अपने सीने से लगाकर कहा, "माँ, कहाँ जाना चाहती हो?" माँ ने दरवाज़े की ओर इशारा किया - क्या पता वो किसे देख पा रही थी. फिर अपने बेटे का चेहरा एक बार देखा। इसके बाद उनका जबड़ा बंद हो गया, और बेचैनी धीरे-धीरे शांत होने लगी। 

हमे अनुभव नहीं था, हमने सोचा माँ शायद दवाओं के असर से सो रही हैं। लेकिन कहीं  न कहीं एक डर बना हुआ था।  तुरंत डॉक्टर साहब आये, उन्होंने आले से जाँच की, और सिर हिला दिया। हमारी माँ चल बसी, हमें अनाथ छोड़कर।   वो एक पुण्यात्मा थीं। अपने पुत्र की गोद मे,भगवान का नाम लेते हुए ,प्राण त्यागना ।इतनी अच्छी मृत्यु  भगयवानो को मिलती है।
हमारी सासू मां चल बसीं पर अपार्टमेंट वाले को कुछ पता नहीं था यही है अपार्टमेंट कल्चर।

Thursday, February 15, 2024

सफरी ने ताज देखा

 बेशक हमारी यात्रा ,यादगार यात्रा साबित हो रही है उसमें जिस ट्रेन से हम सफर कर रहे हैं 'अजिनाबाद एक्सप्रेस'उसका भी सहयोग है। ट्रेन पर

 चढ़ने के बाद काफी नाक भौं सिकोड़ा था यहां तक,कहा कि ये अंगरेजों की बनाई ट्रेन है,जो उन्होंने अपने नौकरों के लिए बनवाई होंगी।खुद तो काफी लंबे चौड़े हुआ करते थे इतने संकरे सीटों पर क्या तो बैठ पाते होंगे,छोटा सा टॉयलेट,जंजीर लगा मग्गा,जिसे कितनी भी कोशिश कर लो उदेश्य सफल नहीं होता। उपर से गंदगी।खैर रात की ट्रेन थी ,चढ़ते ही अपनी अपनी तय   बर्थो पर सो गए,करवट लेने का कोई स्कोप नहीं था,एक ही करवट सो रहे।

सुबह नींद खुली तो खिड़की से झांका लिखा था 'प्रयाग राज '!वही पौराणिक पवित्र स्थान,जिसका वर्णन वाल्मिकी रामायण में है।

तो हम प्रयाग राज में थे। मन खुश हो गया। ये तो वही बात हुई जिसके बारे में सोचा भी न था वो अनायास हो गया। अदृश्य भगवान पर मेरी आस्था बढ़ गई।
संगम नहाए या नहीं इस पर गौर बिल्कुल न करे़ंं, प्रयाग राज में प्रवेश और प्रयाण हो गया।हम धन्य धन्य हो गए। 
साईड लोअर की सीट पर आड़े तिरछे हो कर हमारी यात्रा हौले हौले बढ़ रही थी, बिना किसी चिंता के की हम चार घंटा लेट हैं , अरे ! ये क्या दिख रहा है? हम चकित होकर देख रहे थे सामने ताज महल  खड़ा था ,असली का ! जिसे देखने के लिऐ लोग दूर दूर से आते है,पैसे खर्च करते हैं हम उसका दीदाद मुफ्त में कर रहे थे, हमने खिड़की से उसे खूब निहारा,अंतिम झलक दिखने तक और उसके बाद गर्दन घुमाई तो क्या देखा ? आगरे का विख्यात किला सामने नजर आया। हमारी बांछे खिल उठीं, हमारे दोनों हाथ मे़ लड्डू थे सर कढ़ाई में न चला जाए इसलिए मन ही मन ट्रेन के सामने नत् मष्तक हो गए।  कहा, ऐ मेरी प्यारी ट्रेन तू धन्य है।आज तक कितनी गाड़ियों में सफर किया होगा पर जो कमाल  तुमने किया ,ऐसा नज़ारा किसी ने नहीं दिखाया ,तू चार के बदले छे घंटे देर से पंहुंच।ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? शरीर ही तो जकड़ेगा ,सर में दर्द होगा पर  फट तो न जाएगा ।मंजिल भागी नहीं जा रही है ,वो वहीं रहेगी।

जा तुझे माफ किया।

हमने टिकट की पूरी कीमत वसूल  कर ली थी,बाकी की यात्रा बोनस पॉइंट मे़ हो रही है.....यात्रा जारी है आगे आगे देखते हैं होता है क्या?


Tuesday, January 23, 2024

दाता राम

 जय श्री राम।।


राम जी कितनों को तारेंगे?

हिसाब लगाया है?


इन दिनो अपने देश में राम नाम की नैया तैर रही है। उस पर सब अपनी अपनी तरह सवारी कर रहे हैं।कोई आध्यात्म को पाना चाहता है। किसी को सत्ता चाहिए,कोई यश की लालसा में है ,किसी को धन चाहिए।सब ओर राम नाम की लूट मची है।

इस लिस्ट में सबसे उपर अयोध्या नगरी का नाम है। 

राम लला के आगमन से तर गई अयोध्या नगरी,पहले की अयोध्या ,याद है न ? छोटा सा रेलवे स्टेशन देखा था,अब चकाचक हवाई अड्डे से लैस हो गई है‌।गलियों सड़कों का ऐसा कायाकल्प ,मानो किसी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो।

तर गए अयोध्या वासी उनके दोनों हाथ में लड्डू हैं,सुविधा ओर रामलला की नगरी का नागरिक होने का आध्यात्मिक बोध ।

अगर नरेन्द्र मोदी जी चुनाव जीत गए तो इसे श्री राम भक्ति का प्रसाद माना जाएगा,वो भी तर जाऐंगे।

तर जाने वालों में शहर ही नहीं आसपास के होटल व्यवसायी भी हैं ।वहां के सारे होटल पहले से बुक हैं ,उस खास दिन ही नहीं बल्कि अब उनके दिन फिर गए समझिए,क्योंकी यह कॉरिडोर  पर्यटकों को ध्यान में रख कर विकसित किया जा रहा है। 

 उस क्षेत्र के ट्रांसपोर्ट वाले, 

मंदिर निर्माण से लेकर सभी निर्माण कार्य से जुड़े ल़ोग,तर गऐ।

छोटे व्यवसायी,जो कचौरी,जलेबा,रबड़ी या सभी खोंमचे वाले ,जो पर्यटको ं को खूब लुभाते हैं सभी कमा कर तर जाऐंगे।सरकारी पर्यटन विभाग ,रेल विभाग अथाह कमाई के श्रोत बन कर सरकार को तार देंगे,जय श्री राम।

श्री राम उनको भी तारेंगे जो कहीं न कहीं किसी रूप में जुड़ा है। लोग तीर्थ पर जातें हैं लौटने पर परिवार के लिए ,तस्वीरें,प्रसाद,चुड़ी बिंदी,सिंदूर लाता है,उन्हे भी तारेंगे प्रभु श्री राम।

सारा मिडिया जगत जिन्हे कई दिनों से परोसने के लिए सामग्री मिल गई इन दिनों इधर उधर खबर तलाशने से छुट्टी मिल गई है। सबका बेड़ा पार करेंगे श्री राम।।

कलाकारों की भी बन आई है,धड़ाधड़ भक्ति गीत लिखे गाऐ जा रहे हैं,तरह तरह के विडिओ बन कर बाजा़र में बिक रहे हैं।

जय हो राम का नाम।

सच कहा है ,राम नाम की लूट है ,लूट 

सको तो लूट।

 आईए अपने लिए कोई स्कोप हो तो राम नाम की नैया पर सवार हो जाइऐ 

अंतकाल पछताऐंगे जब,सब कुछ लेंगे, लूट।

।।जय श्री प्रभु राम ।।

Wednesday, January 10, 2024

शीत लहर का कहर

 शीत लहर का कहर जारी है !


इन दिनों पूरा उत्तरी भारत शीत लहर से थरथरा रहा है । हर कोई ठंड से जान बचा रहा है, कोई रजाई के अंदर घुसा हुआ है ।कोई अलाव ताप रहा है।

सबकी अपनी औकात , अपने तरीके हैं ,सब इसे भगाने में लगे हुए हैं ।यही लोग कुछ दिनों बाद गरमी दूर करने के उपाय ढ़ूंढ़ते नजर आऐंगे। जो मिला उसी में संतुष्ट हो जा़ऐं सो नहीं ,जो नहीं मिला उसके लिए बेहाल हुए जा रहे हैं। अरे भाई,किसी एक का साथ दो,ये क्या बात हुई जो आया उसे भगाया ।

मुझे सर्दियों का मौसम अच्छा लगता है, हमेशा।


इसकी बहुत सारी वजहें हैं।

जाडे़ के दिनों में लोग ज्यादा चुस्त दुरुस्त स्मार्ट नज़र आने लगते हैं।

 सर्दियों में  अपने देश में जहां  खुले बदन रहने का चलन  नहीं है,चाहे लड़की हो या लड़का।

अचानक से बहुत संस्कारी दिखने लगते हैं,सबों के बदन पर कपड़े होते है  तन प्रदर्शन करने, कम कपड़े पहनने की गुंजाइश नहीं रहती, तन प्रदर्शन करें तो कैसे ? गर्मियों में लड़कियां ना जाने  कैसे छोटे-छोटे कपड़े पहनकर निकल जाती हैं ।और ये लड़के ,  शॉट्स क्या आ गया है इसे पहनकर कहीं भी  चले जाते हैं,

चाहे सफर हो या होटल हो।   जैसे टांगे दिखाने का इनको लाइसेंस मिल गया हो। यही लोग सर्दियों में,कोट,जैकेट,स्वेटर में चुस्त दुरुस्त नजर आते हैं।

इसी बहाने हमारे गर्म कपड़े जो सामान्य कपड़ों की तुलना में काफी महंगे  होते हैं बक्से के बाहर निकलते हैं समझिए दाम वसूल होता है नहीं तो साल के 10 महीने  बंद करके रखना,  घर की जगह जो लेते हैं सो अलग। ऐ,सी. पंखा, फ्रिज, कूलर के बिजली का बिल कम आता है।मेहमान भी सिर्फ एक प्याली चाय से खुश हो जाते हैं।


गर्मियों में लोगों का दिमाग गरम हुआ रहता है,बेवजह आपस में उझलते रहते है ,

जबकि ठंड में लोगों का दिमाग भी ठंडा रहता है,जल्दी  तनाव में नहीं आते, लड़ते कम हैं।

हम गृहणियों को ठंड इसलिए भाता है क्योंकि सब्जियों और फलों की बहार होती है।

लोग बीमार कम पड़ते हैं,

कोई मन पसंद चीज थोड़ा ज्यादा भी खा लिया,हजम हो जाता है।।

और अंत में एक खास राज की बात !  

सर्दियों में मैचिग ब्लाउज की कोई टेंशन नहीं होती, शॉल स्वेटर के  अंदर 

किसी भी  रंग का पहन लिया किसी को पता नहीं चलता।

हा हा हा।



Sunday, January 7, 2024

वक्त का सैलाब

 किसी भागते पलों में तुमने थामा था मेरा हाथ, कहा था  चलेंगे साथ साथ।

वक्त का सैलाब तुम्हें न जाने, कैसे कहां ले कर चला गया,
 तुम्हें अपने साथ।
 मैं वहीं खड़ी हूं अब तक,
 तुम आ न जाओ तब तक।

तुम्हें ढूंढने की कोशिश की,
हजारों बार , पर,  
तुम न मिले एक बार,
लोगों से पूछा बार बार
,कब मिले थे तुम आखरी बार।

Thursday, August 31, 2023

गाम आऊ न

 मैथिल मोनक उद् गार


हम बसै छी, दिल्ली बम्बई,

मोन बसईयै  मिथिले में !

चलु रे भैया,चलु यै बहिना, 

गाम चलु अहि छुट्टी में,


 दुर्गा पूजा में हम जबै,

मा़ं दुर्गा के दर्शन करबै,

मैया सं हम आशीष मंगबै।

और मैया के भोग लगेबै।

        लड्डू,पेड़ा और जिलेबी।                          तखन उपर सं पान मखान  ।


चलु रे भैया,चलु यै बहिना, 

गाम चलु अहि छुट्टी में,


गामक मेला नीक लगैया,

पाव भाजी सं मोन घुमैया

ऐतय ने भेटय मुड़ही कचरी,

    माछ भातक दोकान कहां,


चलु रे भैया,चलु यै बहिना, 

गाम चलु अहि छुट्टी में,


,माईक कोर सन अप्पन मिथिला,

आन कतहु ने चैन  भेटैया ।

अप्पन भाषा अप्पन बोली,

सुनितहि होईयै हर्षित प्राण।


चलु रे भैया,चलु यै बहिना, 

गाम चलु अहि छुट्टी में।


दुर्गा पूजा आबि रहल अछि,सबगोटे गाम चलै चलू,

एखन आहां गाम के छोड़ने छी,बाद में गाम आहां के छोड़ि देत। अपन गाम घर के,ओगरि क राखू,ई अप्पन घरोहरि थिक,अप्पन सुंदर संस्कृति विनाशक कगार पर अछि एकरा सम्हारय के भार हमरे सब पर अछि।सम्हारु ने!



Wednesday, August 30, 2023

कोटा का सचं क्या है?

 कोटा में फंदा क्यों?


कोटा में ये हो क्या रहा है? पिछले 24 घंटों में दो बच्चों ने अपनी जान दे दी, ऐसा आए दिन हो रहा है, क्या इसकी गहराई से जांच नहीं होनी चाहिए?

बच्चों के कोमल दिल पर कैसा खौफ डाला जा रहा है?

सच्चाई थोड़ी कटू है पर सही है।

इसमें अविभावक भी शामिल हैं।क्या आप जानते हैं मानसिक प्रताड़ना की कीमत पर मिली सफलता को क्या बच्चा सहजता से लेगा?

हम अपनी महत्वाकांक्षा बच्चों से पूरी करवाना चाहते हैं, बिना ये समझे कि मेरा बच्चा कितने पानी में है।

 सब बच्चे एक समान नहीं होते, लेकिन आप एक सफल बच्चा चाहते हैं जो आपकी रुचि के क्षेत्र में अपना भविष्य बनाए ।

साहित्यिक रुचि के बच्चे को  विज्ञान पढ़ाना उसकी स्वाभाविक प्रतिभा को दबाना होगा। 

अपने माता पिता के अरमानों के बोझ तले कोटा पहुंचने वाले बच्चों को ये गिद्ध कोचिंग वाले ,फीस तो सबसे एक जैसा लेते हैं पर बाद में ,सभी बच्चों को बारिकी से जांचते हैं उनमें से मेघावी बच्चों को चुन लिया जाता है(जो वैसे भी सफल हो ही जाते)बाकी अभागों को भेड़ बकरियों के समान हांका जाता है।

कमजोर पर मेहनत कौन करे ?

हीन भावना से भरे ये बच्चे, जो हो सकता है कुशल शिक्षक के हाथों बन भी जाते , मगर  बिना सही पढ़ाई के पिछड़ते जाते हैं,एक के  बाद एक परीक्षा  में कम नंबर लाते लाते अंततः हताश हो जाते हैं, इनमें से जो अधिक संवेदनशील होते हैं या जिन पर ज्याद दबाव होता है वो लौटने से बेहतर मरना पसंद करते हैं।सवाल माता पिता से है,आप क्या पसंद करेंगे ? 

आपका बच्चा उन तेज तर्रार बच्चों के बीच भोंदू बनकर रहे ?


 या आपका औसत प्रतिभावान बच्चा जो संवेदनशील भी है, अपने शहर में आपके साथ रह कर  अपनी पसंद का विषय लेकर पढ़ाई करे ?

बच्चा दो पैसा कम कमाएगा,पास तो होगा।

अंत में 

ओ कोटा जाने वाले बच्चे ,हो सके तो लौट के आना।