Monday, August 30, 2021

ओ,काबुली वाले

 हा हा काबुल दुर्दशा न देखी जाई। 

ओ काबुली वाले कहां है तू?
बचपन में  टैगोर जी की कहानी पढ़ी थी
 'काबुली वाला' ।कहानी,एक छोटी सी बच्ची,और सूखे मेवे,बेचने वाले पठान की थी जिसे उस बच्ची में उसे अपनी बेटी दिखती थी। बच्ची को प्यार से तोहफे में ढेरों मेवे देने वाला ,स्नेही पिता।  अफगानियों के बारे में एक धारणा है कि अपनी जुबान के पक्के ,पर स्वाभिमानी, नेकदिल इंसान होते हैँ ।जब
काबुल पर  हमला हुआ , दिल दहल गया ।निर्दोष नागरिकों का ऐसा नरसंहार  !
जान बचाने को भागते बदहवास लोग,  रहम की भीख  मांगती औरतें,
आत़़ंक से डरे छोटे बच्चे,उन्हें समझ में नही आ रहा है ये हो क्या रहा है। तालिबानी कहीं से इंसान नहीं हैंं ।मानव होते तो' मानवाधिकार' की बात समझते,
ये वहशी जानवर हैं,मिनटों में लाशें बिछाने वाले इनके हथियारों के डर से,हर कोई कतराता है।
अपने खास दुश्मनों को टोहती निगाहें,मेरे बेटे का अफगानी दोस्त,हर दिन जगहें बदल कर फोन से खुद को वहां से निकलवाने  का कोइ तरीका पूछता है।उसकी बेबसी,उसकी कातर आवाज,हमें बेचैन कर देती हैंं ।ऐसी लाचारी,ऐसे माहौल में कोई क्या करे, फोन घंटी हमें   डरा देती है।हम निरंतर उसकी सुरक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैंं।इसके सिवा हम कर ही क्या सकते हैं।उन्हे सबक सीखाने के लिए उन्हे भी मार डालना समाधान कतई नहीं है।
चाहे कोई मारा जाता हो,
झेलतीं हैं औरतें ।
क्योंकी  लड़ते हैं सैनिक मैदाने जंग में,
शहर भर जाता है ,जिंदा लाशों से।
पथरा जाती हैं मासूमों की आंखें,
पिता की राह तकते तकते।
कायर नहीं हैं हम ,पता है हमको,
कि मरना है एक दिन सबको,
उनसे डर कर नहीं भागेंगे, इस उम्मीद से कि शायद कहीं,उसके रूह में छुपा हो एक कतरा भर इंसानियत ।
मुड़ के बैठ जाऐंगे हम घुटनो के बल ,
पलकें झुका के नहीं,
नजरें मिला कर  सामना करेंगे उन निगाहों का, शायद  उन्हे, 
इन आंखो में दिख जाए कोइ अपने बेटे सा
या  किसी चेहरे से झांकता हो पिता का चेहरा।
आमीनं ।


 

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