उन्हें खुल कर उड़ने को पूरा गगन दिया.
जितनी जरुरत थी उतनी ही ढील दी.
चाँद-सूरज को छू लेने की आस लिए
पतंगे अपनी मंजिलों की और भाग रहीं थीं.
कि राह में उन्हें ऊँची इमारतों
बिजली के खम्भों ने रोक लिया
अब अधर में लटक कर तूफानी हवा के थपेड़ों से चीथड़ों में बटना
या फिर बारिश के पानी में गलते रहना
क्या यही उनकी नियति होगी?
लेकिन मैंने अपनी आँखें मूँद ली हैं
कान बंद कर रखे हैं
क्योंकि मैंने पतंगों की डोर
अपने दिल के तारों से जोड़ रखे थे .
आप की रचना 01 अक्टूबर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत सुन्दर् भावनात्मक रचना
ReplyDeleteसुन्दर रचना...भावपूर्ण..आपको बधाई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अहसास्।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत ....
ReplyDeleteनीता जी अपनेक पूरा बलोग पढलहु..अहाक छोट छोट आलेख आओर सन्स्मरण बहुत सुन्दर अछि.. ई कविता सेहो बहुत भावपूर्ण अछि... खास कय.. अन्तिम पन्क्ति...
ReplyDelete" क्योंकि मैंने पतंगों की डोर
अपने दिल के तारों से जोड़ रखे थे ."....
behtareen rachna ...
ReplyDelete'vatvriksh' ke liye bhejen rasprabha@gmail.com per parichay aur tasweer ke saath
बहुत सुन्दर............
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