मेरे बचपन की यादें प्रायः धनबाद या यों कहें चासनाला{ कोलियरी}से जुडी हुई हैं बाबूजी कोलवौसरी में काम करते थे .पोस्ट के साथ घर बदलते रहे ,लेकिन रहना चासनाला में ही हुआ . इसलिए बचपन के सभी दोस्त सहेलियां वहीं के हैं .धनबाद से लगाव इसलिए है क्योंकि मिडिल स्कूल के बाद हाईस्कूल ,कॉलेज की पढाई धनबाद से ही हुई . हमलोग हररोज बस से घंटे, डेढ़ -दो घंटे सफ़र कर धनबाद जाते थे . स्कूल -कॉलेज की मस्ती में बस यात्रा का एक अलग ही अध्याय है .हमलोग सुबह के निकले देर शाम घर लौटते थे .इसलिए हर कोई अपना लंच बॉक्स साथ ले कर आता था .और हमें उसी के भरोसे पूरा दिन बिताना होता था क्योंकि कैंटीन के पैसे - कभार ही मिलते थे ,वो भी उन पैसों से हम अक्सर आइसक्रीम ही खाया करते थे . बस में चढ़ते ही सबसे पहले हमारे टिफिन की चेकिंग होती थी ,अगर कुछ दिलचस्प हुआ तो तभी सब चट कर जाते थे .
प्रायः रोटी- पराठा कोई जल्दी नहीं था हम मज़बूरी में लंच टाइम में खाते थे . बस में अगर खिड़की वाली सीट मिल गई तो जीवन धन्य ! जाते वक्त अन्ताक्छ्री का खेल नहीं होता था .पूरे रास्ते हम भूरे रंग की मैना ढूंढते जाते थे .वो भी जोड़े में .क्योंकि टू फॉर जॉय और वन फॉर सौरो जो होता था .थ्री फॉर गेस्ट और फोर फॉर लेटर और न जाने क्या -क्या ,अब तो उतना याद भी नहीं है .
रास्ते में कई मजनुओं के परमानेन्ट ठिकाने थे और कुछ रईश जादे बाइक से बस के आगे -पीछे किया करते थे . हमारा सफ़र इन्ही सब का मज़ा लेते ,बड़े मजे में कटता था . और हाँ ,रास्ते में एक बोय्ज कॉलेज भी पड़ता था .'राज कॉलेज 'झरिया .वहाँ पहुँचते ही हम सब सावधान हो जाया करते थे .क्योंकि कभी-कभी प्रेम -पत्र के साथ ढेला वगैरा भी फेंका जाता था .
शाम को लौटने समय अक्सर अन्ताक्छ्री होती थी .उसमे माला चटर्जी बड़ा अच्छा गाती थी .हम कभी-कभी उसे अपनी सीट दे कर गाना थे . हमारी प्रायः जोड़ी या तिकड़ी हुआ करती थी .
रीता कोहली और रेनू तिवारी हमे ,हंसा -हंसा के लोट -पोट ,कर दिया करती थी. मेरी मीरा और आरती की तिकड़ी थी .मीरा श्रीवास्तव थोड़ी अलग थी .उसकी जल्दी किसी से पटती नहीं थी वैसे वो बीमार भी रहा करती थी .माटला सबसे बाद में आई लेकिन वो हम सब पर छा गई .
महिला -स्कूल ,कॉलेज का अनुशासन बड़ा सख्त रहा करता है .
हमारे बस का ड्राइवर और खलासी भी हमारा गार्जियन जैसा था ,अपने स्टॉप के अलावा अगर कहीं और उतरे तो सीधे प्रिंसिपल मैडम के पास कम्प्लेन पहुँच जाता था . पता नहीं इतनी लड़कियों के अलग -अलग चेहरे उसे याद कैसे रहते थे
काफी सीनियर होने के बाद ,हमने एक फिल्म देखने की योजना बनाई .
फिल्म थी 'लव -स्टोरी '. हम बस वाली लड़कियों के लिए गेट से निकलना मना था .हमारे बस के ड्राइवर 'हरी -भाई 'हरदम गेट के पास ही मंडराते रहते थे .....हम तेरह लड़कियां थीं , यानि' फुल- रो '. कैसे हमने वो लक्छमन रेखा पार की ये हम ही जानते हैं .ये फिल्म मुझे कभी नहीं भूलेगी .
हम सभी आर्ट्स के थे ,इसलिए पढ़ाई का लोड हम पर कम ही था .बस
परिक्छा के पहले जम कर पढ़ लिया करते थे .लेकिन इसलिए कॉलेज के हर सांस्क्रतिक कार्यक्रम ,चुनाव ,सरस्वती पूजा ,पिकनिक वगैरा में हम जरुर भाग लिया करते थे .हमारा ग्रुप कॉलेज में छाया हुआ था .
कॉलेज से निकलते -निकलते प्रायः हम सभी की शादी हो गई .मेरी शादी तो कॉलेज से निकलने के एक साल पहले ही हो गई .शादी के बाद मै साड़ी पहन कर कॉलेज जाने लगी .
सच साड़ी में तब बड़ी दिक्कत होती थी .शादी के बाद कॉलेज में हम सिर्फ ससुराल और हसबैंड की बातें किया करते थे .शादी -शुदा होने के बाद से अब हमें थोड़ी छुट मिलने लगी थी .हम कॉलेज से ही हीरा पुर मार्केट जाया करते थे .अपने लिए चूड़ी या श्रृंगार का सामान खरीदने .
रिटायर्मेंट के पहले ही बाबूजी ने धनबाद में अपना मकान बनवा लिया
सो चासनाला लगभग छुट ही गया .हाँ पुतुल दी चूँकि कन्द्रा में रहती है इसलिए कभी -कभार उसी रस्ते से आनाजाना हो जाता है तो पुरानी यादें फिर से ताजा हो जाती हैं .
कुछ दिनों पहले भी मै सिंदरी गई थी ,उसी स्कूल -कॉलेज वाले रास्ते से हो कर .दुनिया बदल गई है लेकिन झरिया से धनबाद का वो रास्ता वैसे का वैसा है .लगता है समय वहां के लिए ठहर सा गया है .जमीन के अन्दर की आग की वजह से वहां के लोग दम साधे झरिया के धसने का इंतजार कर रहे हैं ......दुकाने ,सड़क के किनारे की ऑफिस की बिल्डिंग ,सरकारी क्वाटर ,मंदिर वगैरा जस की तस हैं कुछ भी नया नहीं बना है हाँ पहले के मकान जर्जर जरुर हो गए हैं .काले धूल की परत और मोटी चढ़ गयी है
फिर भी मुझे वही अच्छा लगता है मानो किसी टाइम मशीन से हम वापस उसी युग में लौट गए हों
प्रायः रोटी- पराठा कोई जल्दी नहीं था हम मज़बूरी में लंच टाइम में खाते थे . बस में अगर खिड़की वाली सीट मिल गई तो जीवन धन्य ! जाते वक्त अन्ताक्छ्री का खेल नहीं होता था .पूरे रास्ते हम भूरे रंग की मैना ढूंढते जाते थे .वो भी जोड़े में .क्योंकि टू फॉर जॉय और वन फॉर सौरो जो होता था .थ्री फॉर गेस्ट और फोर फॉर लेटर और न जाने क्या -क्या ,अब तो उतना याद भी नहीं है .
रास्ते में कई मजनुओं के परमानेन्ट ठिकाने थे और कुछ रईश जादे बाइक से बस के आगे -पीछे किया करते थे . हमारा सफ़र इन्ही सब का मज़ा लेते ,बड़े मजे में कटता था . और हाँ ,रास्ते में एक बोय्ज कॉलेज भी पड़ता था .'राज कॉलेज 'झरिया .वहाँ पहुँचते ही हम सब सावधान हो जाया करते थे .क्योंकि कभी-कभी प्रेम -पत्र के साथ ढेला वगैरा भी फेंका जाता था .
शाम को लौटने समय अक्सर अन्ताक्छ्री होती थी .उसमे माला चटर्जी बड़ा अच्छा गाती थी .हम कभी-कभी उसे अपनी सीट दे कर गाना थे . हमारी प्रायः जोड़ी या तिकड़ी हुआ करती थी .
रीता कोहली और रेनू तिवारी हमे ,हंसा -हंसा के लोट -पोट ,कर दिया करती थी. मेरी मीरा और आरती की तिकड़ी थी .मीरा श्रीवास्तव थोड़ी अलग थी .उसकी जल्दी किसी से पटती नहीं थी वैसे वो बीमार भी रहा करती थी .माटला सबसे बाद में आई लेकिन वो हम सब पर छा गई .
महिला -स्कूल ,कॉलेज का अनुशासन बड़ा सख्त रहा करता है .
हमारे बस का ड्राइवर और खलासी भी हमारा गार्जियन जैसा था ,अपने स्टॉप के अलावा अगर कहीं और उतरे तो सीधे प्रिंसिपल मैडम के पास कम्प्लेन पहुँच जाता था . पता नहीं इतनी लड़कियों के अलग -अलग चेहरे उसे याद कैसे रहते थे
काफी सीनियर होने के बाद ,हमने एक फिल्म देखने की योजना बनाई .
फिल्म थी 'लव -स्टोरी '. हम बस वाली लड़कियों के लिए गेट से निकलना मना था .हमारे बस के ड्राइवर 'हरी -भाई 'हरदम गेट के पास ही मंडराते रहते थे .....हम तेरह लड़कियां थीं , यानि' फुल- रो '. कैसे हमने वो लक्छमन रेखा पार की ये हम ही जानते हैं .ये फिल्म मुझे कभी नहीं भूलेगी .
हम सभी आर्ट्स के थे ,इसलिए पढ़ाई का लोड हम पर कम ही था .बस
परिक्छा के पहले जम कर पढ़ लिया करते थे .लेकिन इसलिए कॉलेज के हर सांस्क्रतिक कार्यक्रम ,चुनाव ,सरस्वती पूजा ,पिकनिक वगैरा में हम जरुर भाग लिया करते थे .हमारा ग्रुप कॉलेज में छाया हुआ था .
कॉलेज से निकलते -निकलते प्रायः हम सभी की शादी हो गई .मेरी शादी तो कॉलेज से निकलने के एक साल पहले ही हो गई .शादी के बाद मै साड़ी पहन कर कॉलेज जाने लगी .
सच साड़ी में तब बड़ी दिक्कत होती थी .शादी के बाद कॉलेज में हम सिर्फ ससुराल और हसबैंड की बातें किया करते थे .शादी -शुदा होने के बाद से अब हमें थोड़ी छुट मिलने लगी थी .हम कॉलेज से ही हीरा पुर मार्केट जाया करते थे .अपने लिए चूड़ी या श्रृंगार का सामान खरीदने .
रिटायर्मेंट के पहले ही बाबूजी ने धनबाद में अपना मकान बनवा लिया
सो चासनाला लगभग छुट ही गया .हाँ पुतुल दी चूँकि कन्द्रा में रहती है इसलिए कभी -कभार उसी रस्ते से आनाजाना हो जाता है तो पुरानी यादें फिर से ताजा हो जाती हैं .
कुछ दिनों पहले भी मै सिंदरी गई थी ,उसी स्कूल -कॉलेज वाले रास्ते से हो कर .दुनिया बदल गई है लेकिन झरिया से धनबाद का वो रास्ता वैसे का वैसा है .लगता है समय वहां के लिए ठहर सा गया है .जमीन के अन्दर की आग की वजह से वहां के लोग दम साधे झरिया के धसने का इंतजार कर रहे हैं ......दुकाने ,सड़क के किनारे की ऑफिस की बिल्डिंग ,सरकारी क्वाटर ,मंदिर वगैरा जस की तस हैं कुछ भी नया नहीं बना है हाँ पहले के मकान जर्जर जरुर हो गए हैं .काले धूल की परत और मोटी चढ़ गयी है
फिर भी मुझे वही अच्छा लगता है मानो किसी टाइम मशीन से हम वापस उसी युग में लौट गए हों
बढिया संस्मरण
ReplyDeletedhanyvad ,lalit ji !
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