Sunday, October 31, 2010

असमंजस

अभी बिहार में चुनाव हो रहे हैं. सारा माहौल ही चुनावमय हो गया है. बिहार के लोगों का राजनैतिक ज्ञान गजब का है. अभी तो उन्हें बस छेड़ने भर की देर है. हर प्रत्याशी का बायोडाटा और चुनावी हैसियत उन्हें पता होता है. रोज़ एक से एक नेता आते हैं. नेताओं को सभा स्थल पर जाकर सुनने का शगल कुछ ही लोगों में होता है. उनके लिए समस्या हो गयी है कि किसे सुने किसे छोड़े. अब राजनीति तो सिर्फ जबानी रह गयी है.

कौन सा नेता अपनी बातों को कितने प्रभावशाली रूप में रख रहा है बस इसी का खेल है. वैसे माने तो शब्दों की बाजीगरी बहुत बड़ा गुण ही है. किसी मुद्दे को उठाकर लोगों का ध्यान उसकी तरफ खींचना एक कला ही तो है.

जब आप नेताओं का भाषण सुनते हैं तो मन अभिभूत हो जाता है. अपनी पार्टी के प्रत्याशी का ऐसा वर्णन, मानो वही एक मात्र हैं. लेकिन भाषण सुनकर जब आप अपने घर की टूटी फूटी सड़क, गन्दी गलिओं से लौट रहे होते हैं तो सारा भ्रम दूर हो जाता है.

मन दिग्भ्रमित है, बड़ी असमंजस की स्थिति है.

अपना वोट किसे दूँ?

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