छोटे शहरों में अभी भी मनोरंजन के नाम पर फिल्में ही देखी जाती हैं चाहे वह हॉल में हो या TV पर इसलिए दिल्ली में नुक्कड़ नाटकों से जुड़ी कोमिता से मिली तो बातों ही बातों में मैंने उससे कहा मैंने अभी तक कोई बढ़िया नाटक नहीं देखा तो उसने ज्योती डोगरा की एकल मंचन वाली नाटक देखने को कहा यह नाटक छतरपुर में होना था शायद सारे लोग दिल्ली की कलाजगत से जुड़े लोग थे ।पूरा माहौल काफी कलात्मक लग रहा था हल्का प्रकाश और मोमबत्तियों की जगमगाहट, हॉल खचाखच भरा था । इस फास्ट फास्ट जमाने में इत्तमिनान से नाटक शुरू हुआ काफी लंबा सांसों के उतार-चढ़ाव से शुरू हुआ उनका नाटक,दर्शक दम साधे नाटक देख रहे । विषय चाय था ।एक चाय के इतने आयाम हो सकते हैं? सोचा न था दर्शक भले अभिजात्य वर्ग के थे लेकिन प्रसंग दिल्ली के मध्यम वर्ग से जुड़े थे।
नाटक देखने के बाद यही ख्याल आया दूध की उम्मीद में मेरे हाथ में मलाई आ गई ।नाटक के बारे में सिर्फ एक शब्द अद्भुत ! चाहे वह अभिनय हो, परिकल्पना हो, मंच पर प्रकाश का प्रयोग हो बल्कि पूरी तरह प्रयोग शाला थी ।कहने को यह एकल अभिनय था लेकिन दर्शकों को साथ समेटते हुए उन्हें भागीदार बना कर । कुछ तो बात थी। पर हां, दर्शक भी खास थे । विलक्षण कलाकार हैं ज्योति डोगरा जी। एक अकेली महिला ने इतने रूप धरे , सब के सब हमारे आसपास के लोग सारा कुछ हमारा देखा-सुना था पर सिर्फ आवाज से वैसा माहौल बनाना कला है । दर्शक आत्मसात कर रहे r लगा अगल बगल के परिवेश को खुद जिया हो बारीक से बारीक भाव भंगिमा। चाहे औरत की कुंठा हो, या बुढापे की त्रासदी ,बदली आवाज़। हमें पीछे की कुर्सियां मिली जब वह बैठ जाती थी ,हमें कुछ नहीं दिखता था उस समय में लगता था हम रेडियो सुन रहे हो रेडियो नाटक ! लेकिन फिर भी जो प्रभाव था उनकी आवाज की वजह से वह तारत्म्य बना रहा इतने सुंदर अभिनय के लिए मैं उन्हें बधाई देती हूं और शुभकामनाएं देती हूं
नाटक देखने के बाद यही ख्याल आया दूध की उम्मीद में मेरे हाथ में मलाई आ गई ।नाटक के बारे में सिर्फ एक शब्द अद्भुत ! चाहे वह अभिनय हो, परिकल्पना हो, मंच पर प्रकाश का प्रयोग हो बल्कि पूरी तरह प्रयोग शाला थी ।कहने को यह एकल अभिनय था लेकिन दर्शकों को साथ समेटते हुए उन्हें भागीदार बना कर । कुछ तो बात थी। पर हां, दर्शक भी खास थे । विलक्षण कलाकार हैं ज्योति डोगरा जी। एक अकेली महिला ने इतने रूप धरे , सब के सब हमारे आसपास के लोग सारा कुछ हमारा देखा-सुना था पर सिर्फ आवाज से वैसा माहौल बनाना कला है । दर्शक आत्मसात कर रहे r लगा अगल बगल के परिवेश को खुद जिया हो बारीक से बारीक भाव भंगिमा। चाहे औरत की कुंठा हो, या बुढापे की त्रासदी ,बदली आवाज़। हमें पीछे की कुर्सियां मिली जब वह बैठ जाती थी ,हमें कुछ नहीं दिखता था उस समय में लगता था हम रेडियो सुन रहे हो रेडियो नाटक ! लेकिन फिर भी जो प्रभाव था उनकी आवाज की वजह से वह तारत्म्य बना रहा इतने सुंदर अभिनय के लिए मैं उन्हें बधाई देती हूं और शुभकामनाएं देती हूं
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